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इसलिए मिला था ‘डॉक्टर डेथ’ नाम
हालांकि, इस दिल दहला देने वाली घटना में कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने खुद की जान की परवाह किये बिना अपने कर्म को महत्व दिया। इन्ही में से एक हैं डॉ. डी के सत्पथी। वैसे तो इस त्रासदी में हजारों लोगों ने जान गंवाई थी, जिनके सरकारी आंकड़े 3 हजार हैं, तो प्राइवेट एजेंसियों के आंकड़े 7 से 8 हजार हैं और कई लोगों का अनुमान है कि, इस त्रासदी में 15 हजार से ज्यादा लोगों ने उस रात को जान गंवाई थी। इनमें कई मृतकों के पोस्टमार्टम भी हुए थे, जो कई दिनों तक चलते रहे। लेकिन डॉ. सत्पथी ने उस काली रात में मारे गए लोगों का अपने कर्तव्यों को निभाते हुए एक बार में 876 पोस्टमार्टम किये थे। जिसके बाद से ही उन्हें ‘डॉक्टर डेथ’ के नाम से पहचाना जाने लगा।
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व्यथित कर देने वाली चीखों के बीच निभाई बड़ी जिम्मेदारी
दरअसल, उस रात के अगले दिन भोपाल के हमीदिया हॉस्पिटल के कंपाउंड में लाशों का ढेर लगने लगा था। इन लाशों की फिक्र बस एक व्यक्ति के कांधों पर थी। उनका नाम है डॉ. डी के सत्पथी है। 3 दिसंबर 1984 के बाद जिन्हें सारा भोपाल डॉक्टर डेथ के नाम से जानने लगा। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार इस शख्स ने गैस के शिकार हुए लगभग तीन हजार लाशों का पोस्टमॉर्टम किया।
सर्द ठंडी रात में जो लोग जान गंवा चुके थे, उनमें से हजारों की तादाद में मृतक शहर के सबसे बड़े सरकारी हमीदिया अस्पताल पहुंचाए जाने लगे और यहीं से शुरू हुई ‘डॉ. डेथ’ के नाम से पहचाने जाने वाले डॉ. डी.के सत्पथी की कभी न भुलाई जाने वाली जिम्मेदारी। डॉ.सत्पथी ने 3 दिसंबर को हताहत हुए करीब 876 शवों का पोस्टमॉर्टम एक बार में किया। हालांकि, पोस्टमार्टम का सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा, जिसमें हजारों पोस्टमार्टम हुए। लेकिन एक बार में इतने पोस्टमार्टम करने वाले हमीदिया अस्पताल के डॉ.सत्पथी दुनिया के ऐसे पहले डॉक्टर बन गए, जिन्होंने एक बार में इतने पोस्टमार्टम किये। हालांकि, वो उनका पेशा था, जिसे उन्होंने व्यथित कर देने वाली चीखों के बीच भी पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाया।
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कैसी थी वो खौफनाक रात
साल 1984 की 2 और 3 दिसंबर की उस मनहूस रात को जिसने भी देखा, उसके बारे में सोचकर वो आज भी सिहर उठता है। चारों और सड़कों पर पड़ी लाशें, जिनमें कई अपने भी थे। हर तरफ से आ रही चीख पुकार की आवाज गैस पीड़ितों के कानों में आज भी गूंजती हैं। सड़कों पर कहीं खून की उल्टियां पड़ीं थीं, तो कहीं भीड़ की भागदौड़ में दबकर घायल हुए लोग, इनमें मासूम बच्चे भी थे और बुजुर्ग भी। लेकिन, चाहकर भी कोई एक दूसरे की मदद नहीं कर पा रहा था। लोग बस इधर उधर भागकर खुद को बचाने की जद्दोजहज कर रहे थे। कई घंटों तक तो किसी को पता ही नहीं था कि, आखिर हुआ क्या है। आंखों को जला देने वाली और सांस रोक देने वाली फिजा में लोग बेदम भागने को मजबूर थे। यकीन मानिये ऐसा मंजर देखकर भूल पाना किसी के लिए भीं संभव नहीं होगा।
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पीड़ितों को ही नहीं डॉक्टरो को भी नहीं पता था कारण
रात के करीब डेढ़ बजे से लोगों का हॉस्पिटल अस्पताल पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ। शुरू में ये संख्या इक्का दुक्का थी, लेकिन थोड़ी ही देर में ये बढ़कर दर्जनों, फिर सेकड़ों फिर हजारों में हो गए। तब कहीं जाकर सरकारी अमले को गैस त्रासदी की भीषणता का एहसास हुआ। हालात नियंत्रित करने के लिए डॉक्टरों को इमरजेंसी कॉल किया गया। मगर इस जहर के बारे में जाने बिना इलाज मुश्किल था। तब एक सीनियर फोरेंसिक एक्सपर्ट की जुबान पर आया मिथाइल आईसोसायनाइड का नाम। बता दें कि सायनाइड एक ऐसा जहर है जिसे ईजाद करने वाला ही उसका स्वाद बताने के लिए जिंदा नहीं रहा। लेकिन, उस रात भोपाल की आबादी में सायनाइड की गैस घुल गई थी। तो जरा सोचिये कि, उस रात का मंजर कैसा होगा।
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अब तक पीड़ितों को नहीं मिला उनका हक
घटना के बाद पीड़ितों को लाखों आश्वासन दिये गए। कहते हैं, दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी होने के कारण दुनियाभर के लोगों और कई देशों ने मदद राशि भोपाल को दी थी। यहां तक भी सुनने में आया कि, घटना से आहत होकर दुनियाभर के कई मजदूरों तक ने अपनी एक दिन की मजदूरी भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए भेजी थी। लेकिन, पीड़ित आज भी इंसाफ के लिए दर बदर भटक रहे हैं। बीच में कई बार फाइलें भी सरकी, कई लोगों को मुआवजा भी मिला और कई दफा इसे लेकर प्रदर्शन भी किये गए, लेकिन जो जख्म पीड़ितों को मिले थे, उनपर अब तक पर्याप्त मरहम लगाने कोई हाथ नहीं बढ़ा।