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भीलवाड़ा

नवरात्र विशेष : जहाजपुर का घाटारानी मंदिर, यहां नवरात्र में बंद रहते हैं पट

भीलवाड़ा से करीब 140 किमी दूर जहाजपुर के पास पहाड़ियों में मां घाटारानी का मंदिर राज्य का एकमात्र शक्तिपीठ है, नवरात्र में बंद पट रहते हैं। श्रद्धालु अष्टमी पर मंगला आरती के बाद ही दर्शन कर सकते हैं।

भीलवाड़ाMar 29, 2023 / 07:58 pm

Suresh Chandra

नवरात्र विशेष : जहाजपुर का घाटारानी मंदिर, यहां नवरात्र में बंद रहते हैं पट

नवरात्र विशेष : जहाजपुर का घाटारानी मंदिर, यहां नवरात्र में बंद रहते हैं पट

भीलवाड़ा. जिला मुख्यालय से करीब 140 किमी दूर जहाजपुर क्षेत्र में पहाड़ियों में मां घाटारानी का मंदिर है। शक्ति की आराधना के पर्व नवरात्र में जहां माता के मंदिरों में अनुष्ठान और दर्शन के लिए पट खुले रहते हैं, वहीं मां घाटारानी के मंदिर में दोनों नवरात्र में माता के गर्भ गृह के पट बंद रहते हैं। पुजारी भी मंदिर में प्रवेश नहीं करते। वे बाहर से ही पूजा-अर्चना करते हैं। यही इस मंदिर की विशेषता है। अष्टमी के दिन सुबह 4 बजे पूर्व राजपरिवार से भोग आने के साथ ही माता की विशेष पूजा होती है। मंगला आरती के साथ ही श्रद्धालुओं के लिए मंदिर के पट खोले जाते हैं। इसी के साथ अष्टमी और नवमी को मेला भरता है।
पट बंद रहने के पीछे मान्यता

 

क्षेत्र के प्रबुद्धजनों के अनुसार मान्यता है कि नवरात्र में यहां मां घाटारानी खुद विराजित होती है। उन्हें किसी प्रकार से व्यवधान ना हो, इसलिए नवरात्र में अष्टमी तक गर्भ गृह के पट बंद रखते हैं। जहाजपुर कस्बे से 10 किमी दूर दक्षिण दिशा में मां घाटारानी का मंदिर है, जहां दोनों नवरात्र में हर अमावस्या पर घट स्थापना होने के साथ ही मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। ये अष्टमी पर पूजा-अर्चना के बाद ही खोले जाते हैं। दर्शन तभी पूर्ण माने जाते हैं, जब श्रद्धालु पहाड़ी व नदी किनारे स्थित मंदिर के दर्शन करते हैं।


संवत 1986 में हुआ था मंदिर निर्माण
यहां घाटारानी माता के दो मंदिर हैं। एक पहाड़ी के शिखर पर है, जहां से मां कन्या रूप में प्रकट हुई। दूसरा मंदिर पहाड़ी से नीचे नदी किनारे है, जहां माता भूमिगत हुई और सिर पत्थर में तब्दील हो गया था। नदी तट स्थित मंदिर का निर्माण संवत् 1986 में तंवर वंशज भवानी सिंह की पत्नी चंपाबाई ने कराया था।

 

मान्यता : गायों का दूध पीने आती थी माता, ग्वाले ने देखा तो पत्थर में तब्दील

मां घाटारानी के बारे में मान्यता है कि प्राचीनकाल में एक ग्वाला जंगलों में गाय चराने जाता था। दोपहर में ग्वाला गायों को लेकर नदी किनारे आता था। दोपहर में वहीं आराम करता। गायें नदी में पानी पीकर छांव में बैठ जाती। नदी से कुछ दूर पहाड़ी है। उससे एक कन्या आकर गायों का दूध पी जाया करती। ऐसा रोजाना होता। एक दिन गायों के स्वामी ने ग्वाले को फटकारा कि तुम गायों का दूध निकाल लेते हो। तुम्हारा मेहनताना काटेंगे। परेशान ग्वाला नदी किनारे गायों को छोड़कर खुद पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। तभी पहाड़ी से कन्या आई और नदी किनारे विश्राम कर रही गायों का दूध पीने लगी। यह देख ग्वाला दंग रह गया। कन्या को आवाज लगा पीछे दौड़ा। कन्या ग्वाले को पीछे आता देख भूमि में समाहित होने लगी। तभी कन्या की चोटी ग्वाले के हाथ आ गई। कन्या पत्थर में बदल गई। तब से माता की पत्थर के रूप में पूजा की जा रही है। दूसरा मंदिर पहाड़ी के शिखर पर है, जहां माता प्रकट हुई थी। ऊंची पहाड़ी और चारों और पहाड़िया होने से माता का नाम भी घाटारानी के नाम से ख्यात हुआ।

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