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भीलवाड़ा

गणगौर का आकर्षण कुछ कम हुआ है, लेकिन फिर भी जीवंत है यह अनमोल परम्परा…

युवतियों व महिलाओं की गणगौर मनाने कीआकर्षण कुछ कम हुआ है लेकिन फिर भी जीवंत है यह परंपरा…।

भीलवाड़ाMar 15, 2018 / 11:12 am

tej narayan

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युवतियों व महिलाओं की गणगौर मनाने की। हालांकि इसके प्रति आकर्षण कुछ कम हुआ है लेकिन फिर भी जीवंत है यह परंपरा…।

भीलवाड़ा।

आज के दौर में पुरानी संस्कृति और परम्पराएं धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। युवा वर्ग का रुझान इन प्रचलनों की तरफ कम होने लगा है। साथ ही कई युवक-युवतियां ऐसे भी है, जो इन परंपराओं को जीवंत रखने के लिए उनका निर्वहन करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारे यहां ऐसी ही एक पुरानी परंपरा है, युवतियों व महिलाओं की गणगौर मनाने की। हालांकि इसके प्रति आकर्षण कुछ कम हुआ है लेकिन फिर भी जीवंत है यह परंपरा…।

गणगौर पूजन होलिका दहन के दूसरे दिन ही आरंभ हो जाता है। ये पूजन सोलह दिन चलता है। इस बार 20 मार्च मंगलवार चैत्र शुक्ला तृतीया को पूरे सौलह दिन होने पर गणगौर पर्व मनाया जाएगा। गणगौर पर्व को लेकर महिलाओं में उत्साह और परम्पराओं पर राजस्थान पत्रिका ने कुछ महिलाओं से बातचीत की। उनका भी यही मानना था कि अब भागदौड़ भरी जिन्दगी में सोलह दिन तक पूजन करना तो संभव नहीं है, फिर भी गणगौर पर्व के प्रति उनकी आस्था बरकरार है।

चित्रकार बद्रीलाल सोनी की 64 वर्षीय बेटी शास्त्री नगर निवासी विद्यादेवी सोनी ने बचपन की गणगौर के बारे में बताते हुए कहा कि पहले यह त्योहार युवतियां सज-संवरकर धूमधाम से मनाती थीं, लेकिन अब कुंवारी लड़कियां व नव विवाहित युवतियां गणगौर निकालने और पूजने में कोई विशेष रुचि नहीं लेती है। यदि यही स्थिति रही तो यह त्योहार मात्र महिलाओं तक ही सीमित रह जाएगा। शहर में पहले यह त्योहार महिलाएं व युवतियां धूमधाम से मनाती थी। लेकिन गत पच्चीस-तीस वर्षों से युवतियों का आकर्षण इस त्योहार की तरफ धीरे-धीरे कम होने लगा है। कई युवतियां तो सिर पर गणगौर रखकर चलने में शर्म भी महसूस करती है। वहीं पारंपरिक त्यौंहारों की जगह अब मोबाइल, इंटरनेट, टीवी और सिनेमा ने ले लिया है।

विद्यादेवी बताती है कि इसके लिए महिलाएं और युवतियां ग्यारस पर ही गेहूं के ज्वारे बो देती थी, जो कि तीज तक अंकुरित हो जाते थे। गणगौर के साथ ही इन ज्वारों का भी पूजन किया जाता था। परम्परा के अनुरूप तीज के दिन महिलाएं और युवतियां सूर्योदय के वक्त ही गणगौर को अपने सिर पर रखकर शहर के पुष्पा जी का बाग, भदादा बाग, गांधी पार्क, मुखर्जी पार्क, आस जी का बाग सहित कई बाग-बगीचों में पारंपरिक गीत गाते हुए जाती थी। मगर आज शहरीकरण के चलते आज इन बाग-बगीचों का भी अता-पता नहीं रहा। वहां से दोपहर तक वापस गणगौर पूजन कर लौटते समय अपने मिट्टी के पात्रों (कलश) में हरी पत्तियां और फूल तोड़कर लाती थी।
यहां महिलाएं एकत्रित होकर गीत और भजन भी गाती थी। दोपहर तीन बजे तक कई घरों में लकड़ी की गणगौर का पूजन किया जाता था, तो कहीं मिट्टी से गणगौर बनाकर पूजा की जाती थी। तीन दिनों तक गणगौर माता का श्रृंगार किया जाता था। जब महिलाएं व कन्याएं सिर पर सेवरा लेकर पूजन करने जाती है तो किवाड़ी (दरवाजा) खोलने की प्रार्थना गीत द्वारा माता गणगौर से करती है – गौरि ए गणगौरी माता। खोल किवाड़ी बाहर उबी थारी पूजनवाली, पूजो ए पूजाओ बाई, काई-काई मांगों ? अन्न मांगों, धन मांगों, लाछ मांगों, लछमी जलहर जामी बाबल मांगा राता देई माई, कान कुंवर सो बीरो मांगा, राई सी भोजाई, ऊंट चढ्यो बहणोई मांगा, चुड़ला वाली बहणल।
परीक्षा बनती है बाधक
बिलिया निवासी दुर्गादेवी शर्मा का मानना है कि उन्हें गणगौर का त्योहार मनाना अच्छा लगता है। पर यह परीक्षा के नजदीक ही आता है। एेसे में परीक्षा की तैयारी भी करनी होती है, सोलह दिन पूजने जाना संभव नहीं है। सिर्फ गणगौर के दिन ही पूजन करती जाती हूं।
द्वारिका कॉलोनी निवासी संगीता गौड़ ने कहा, वे परंपराओं आगे बढ़ाने के लिए यह त्योहार मनाती है। यदि युवतियां इस त्योहार को नहीं मनाएंगी तो यह परंपरा समाप्त हो जाएगी। हमारी संस्कृति की ये अनमोल परंपराएं समाप्त न हो, हमेशा जीवंत बनी रहे, यही प्रयास होना चाहिए।

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