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भीलवाड़ा

12 साल के मोहनलाल बने मुदित मुनि, फिर महाश्रमण

चूरू के सरदारशहर में दुगड़ परिवार में जन्मेआचार्य महाश्रमण का जीवन परिचय

भीलवाड़ाJul 18, 2021 / 07:19 pm

Suresh Jain

12 साल के मोहनलाल बने मुदित मुनि, फिर महाश्रमण

12 साल के मोहनलाल बने मुदित मुनि, फिर महाश्रमण

भीलवाड़ा।
आचार्य महाश्रमण का जन्म चूरू जिले के सरदारशहर में १३ मई १९६२ को हुआ। इनके पिता का नाम झूमरमल दुगड़ और मां का नाम नेमादेवी था। उनका सांसारिक नाम मोहनलाल था। व्यवहार जगत में मोहन नाम से पहचान बनाई। बालक मोहन बचपन से ही मेधावी, श्रमशील, कार्यनिष्ठ विद्यार्थी थे। उनकी विनम्रता, भद्रता, ऋजुता, मृदुता और पापभीरुता हृदय का छूने वाली थी। उस समय कौन जानता था कि यह बालक आगे चलकर तेरापंथ का ग्यारहवां अधिशास्ता बनेगा।
दीक्षा
जब बालक मोहन मात्र सात वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया। परिवार में अपूरणीय क्षति हो जाने के बावजूद मां ने अपनी वात्सलता और स्‍नेह देकर अपने लाडले को पिता की कमी की अनुभूति नहीं होने दी। जीवन की क्षणभंगुरता ने बालक की दिशा और दशाकृ दोनों को बदल दिया। उनके मन में वैराग्य का अंकुर प्रास्फुटित हो उठा। ज्यों-ज्यों उसे सिंचन मिला,वह पुष्पित, पल्‍लवित होता चला गया। अध्यात्म के प्रति रुचि बढ़ती गई। धीरे-धीरे उन्होंने उन अर्हताओं को अर्जित कर लिया, जो एक दीक्षित होने वाले साधक में होनी चाहिए। उन्होंने अपने मनोबल और शरीर बल को तोलकर दीक्षा लेने की भावना आचार्य श्री तुलसी के सामने रखी। उस समय आचार्य श्री दिल्ली में प्रवासरत थे। आचार्यश्री ने उनका यथोचित परीक्षण कर सरदारशहर की पुण्य भूमि पर ही मुनिश्री सुमेरमलजी (लाडनूं) को दीक्षा देने की अनुमति प्रदान की। विसं. 2031, वैशाख शुक्ला 14 (5 मई, 1974) रविवार के दिन बारह वर्ष की अल्प आयु में वे दीक्षित हो गए। वे मोहन से मुनि मुदित बन गए। बाह्य परिवेश बदलने के साथ-साथ उनका आन्तरिक परिवेश भी बदल गया। सारी प्रवृत्तियां संयममय हो गई। व्यवहार में बाहर जीना और निश्‍चय में भीतर में रहना उनका जीवनसूत्र बन गया। वे अपना अधिक से अधिक समय स्वाध्याय, ध्यान, पाठ का कंठीकरण और उसके पुनरावर्तन में नियोजित करते थे। समय-समय पर उन्हें आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ का सान्निध्य मिलता रहा। विसं. 2041, ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को आचार्यश्री ने उन्हें अपनी व्यक्तिगत सेवा में नियुक्त कर लिया, इससे उन्हें ज्ञानार्जन, गुरुसेवा और गुरुकुलवास में रहने का सहज ही अवसर मिल गया। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में उनका अध्ययन चलता रहा। महाश्रमण प्रारम्भ से ही एक प्रशान्तमूर्ति के रूप में जाने जाते है। ना अधिक बोलना और ना अधिक देखना। आंखों की पलकें भी प्राय: निमीलित ही रहती है। ज्यों-ज्यों उनकी अर्हताएं बढ़ रही थी, वैसे-वैसे दायित्व की परिधि भी विस्तार पा रही थी। विसं. 2041 जोधपुर प्रवास में वे एक उपदेष्टा के रूप में उभर कर सामने आए। आचार्य तुलसी ने उन्हें व्याख्यान से पूर्व प्रतिदिन उपदेश देने के कार्य में नियुक्त किया।
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महाश्रमणपद पर प्रतिष्ठित
आचार्य तुलसी ने संघ में अनेक नवीन कार्य किए। महाश्रमण पद का सृजन भी उसी नवीनता का परिचायक था। योगक्षेम वर्ष का पावन प्रसंग। लाडनूं की पुण्यस्थली। विसं. 2046 भाद्रव शुक्ला नवमी (6 सितम्बर 1989) का मंगलमय प्रभात। आचार्य तुलसी के पट्टोत्सव का पावन प्रसंग पर उस दिन आचार्यवर ने मुनि मुदित को महाश्रमण के गरिमामय पद पर नियुक्त कर एक नया इतिहास बना दिया। महाश्रमण को सम्मान स्वरूप आदर की चादर ओढ़ाने का श्रेय शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमलजी को मिला। वरीयता के क्रम में यह पद आचार्य और युवाचार्य के बाद होने वाला तीसरा पद था। यह पद अपने आप में गौरवशाली भी था और रचनात्मक कार्य करने की दिशा में एक नया कदम भी था।
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युवाचार्य पद
पूज्यवर्य गणाधिपति श्री तुलसी के महाप्रयाण के कुछ दिनों पश्‍चात आचार्य महाप्रज्ञ ने अप्रत्याशित रूप से युवाचार्य मनोनयन की घोषणा कर दी। विसं. 2054. भाद्रव शुक्ला द्वादशी (14 सितम्बर 1997) के मंगलमय दिवस पर चौपड़ा हाई स्कूल के विशाल मैदान पर वह दृश्य जन-जन के लिए कितना उल्लासित और नयनाभिराम था, जब आचार्य महाप्रज्ञ ने विशाल जनसमूह के बीच आओ मुदित कहकर पुकारा। एक शब्द के साथ ही लाखों हाथ हवा में ठहरा उठे। एक आवाज के साथ ही महाश्रमण मुनि मुदित युवाचार्य महाश्रमण बन गए, लाखों लोगों के आराध्य और पूजनीय बन गए। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने पहले स्वयं पछेवडी (उत्तरीय) धारण कर बाद में महाश्रमण को ओढ़ाकर उन्हें युवाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया और अपने समीप पट्ट पर बिठा कर अलंकृत किया ।
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आचार्य पदाभिषेक
विसं 2657, द्वि वैशाख कृष्णा एकादशी (9 मई 2010) के दिन आचार्य महाप्रज्ञ का सरदारशहर, गोठी भवन में आकस्मिक महाप्रयाण हो गया। विसं. 2067 द्वि. वैशाख शुक्ला दशमी (23 मई 2010) को गांधी विद्या मन्दिर के विशाल प्रांगण में आचार्य महाश्रमण का ग्यारहवें अनुशास्ता के रूप में पदाभिषेक का विशाल आयोजन हुआ।

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