अपने घर के हर कोने में मिट्टी के दीये जलाने की साथ ही पास पड़ोस के घर-आंगन को रोशन करने की परंपरा सदियों पुरानी है और बहुत समृद्ध है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कथाकार डॉ. परदेशीराम वर्मा बताते हैं कि लक्ष्मी पूजा को गांव में सुरहुति कहा जाता है। सुरहुति यानी देवस्मरण। यह देव की स्तुुति का होता है। इसी रात को ही प्रकाश पूजा की दिव्य परंपरा है।
छत्तीसगढ़ में हर घर में दीया जलता है। यह काम बच्चों के जिम्मे होता है। बच्चे थाली में दीप जलाकर दूसरे घरों में दीप रखते जाते हैं। यह सामूहिक ज्योति जलाने की ऐसी परंपरा है जो मिल जुलकर अंधेरे के खिलाफ लडऩे की सीख देता है। इस तरह सुरहुति की रात हर घर के आंगन में एक नहीं बल्कि दर्जनों दीये रोशनी बिखेरते हैं।
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देवी-देवताओं के आंगन में पहुंचाते हैं दीये
सुरहुति की रात गांव के तमाम देवी-देवताओं के आंगन में भी दीये जलाए जाते हैं। हर घर से एक-एक दीया देवी-देवताओं के आंगन तक पहुंचता है। जब बड़ी संख्या में दीये एक साथ जलते हैं तो वह दृश्य ऐसा होता जैसे आसमान के तारे नीचे आकर जगमगा रहे हैं। छत्तीसगढ़ की संस्कृति पर शोध करने वाले सुशील कुमार भोले बताते हैं कि शीतला मंदिर (माता गुड़ी), महावीर (हनुमानजी), गौरा-चौरा और सांहड़ा देवता हर गांव में होते हैं। इसके अलावा हर गांव में अनेक ग्राम्य देवी देवता होते हैं जिनके द्वार पर दीये जालकर रोशन किया जाता है।शंकर-पार्वती का होता है विवाह
डॉ. परदेशीराम वर्मा बताते हैं कि छत्तीसगढ़ आदिवासी अंचल है। यहां शंकर-पार्वती का विवाह सुरहुति के दिन होता है। शंकर को ईशर देव कहते हैं। गोंड़ आदिवासी परिवारों में यह परंपरा है कि वे इस दिन अपनी बेटियों को ससुराल से सादर लिवा कर मायके लाते हैं। घर-घर से कलश परघनी यानी कलश का स्वागत किया जाता है। कलश को मायके आई बेटी अपने सिर पर रखती है और गौरा चौरा में चारों तरफ कलशों का रखा जाता है। शिव पार्वती की मिट्टी की मूर्तियांं बनती है। बीच गांव में विवाह का मंच होता है। बाराती भूत प्रेत के रूप में निकलते हैं। तीन दिन पहले फूल चढ़ाकर गीत शुरू करते हैं। इसे फूल कुचरना कहते हैं। सुबह शिव पार्वती के विवाह के बाद मूर्तियां तालाब में विसर्जित की जाती हैं।