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भरतपुर

करीब 132 वर्ष के इतिहास दूसरी बार नहीं लगेगा झील का बाड़ा में मेला

-पिछले साल भी चैत्र व शारदीय नवरात्र में नहीं लग पाया था मेला, जिला प्रशासन ने कोरोना संक्रमण की आशंका के चलते लिया निर्णय

भरतपुरMar 27, 2021 / 07:08 pm

Meghshyam Parashar

करीब 132 वर्ष के इतिहास दूसरी बार नहीं लगेगा झील का बाड़ा में मेला

करीब 132 वर्ष के इतिहास दूसरी बार नहीं लगेगा झील का बाड़ा में मेला

भरतपुर. करीब 132 वर्ष के इतिहास में दूसरी बार ऐसा होगा कि बयाना के पास स्थित कैलादेवी झील का बाड़ा में मेला नहीं लग पाएगा। जिला प्रशासन की ओर से कोरोना संक्रमण की आशंका के चलते ऐसा निर्णय लिया गया है। चूंकि वर्ष 2020 में भी लॉकडाउन के कारण चैत्र नवरात्र व कोरोना संक्रमण की आशंका के कारण अक्टूबर माह में शारदीय नवरात्र में लगने वाला मेला निरस्त कर दिया गया था। यहां नवरात्र के दौरान 15 दिवसीय मेला लगता रहा है। करौली के कैलादेवी मंदिर की तरह ही यहां पर भी देशभर से श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। इस साल चैत्र नवरात्र 13 अप्रेल से शुरू हो रहे हंै, जो कि नौ दिन तक चलेंगे। 22 अप्रेल को इसका समापन होगा। इसी प्रकार ब्रह्मबाद में शीतला माता का मेला आठ अप्रेल को प्रस्तावित था, लेकिन इस मेले को प्रशासन ने निरस्त कर दिया है। प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया है कि मेला निरस्त कर दिया गया है। ऐसे में अगर कोई भी भंडारे या पांडाल लगाता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। साथ ही इस बारे में स्थानीय प्रशासन ने भी पालना कराने के लिए निर्देश जारी कर दिए हैं।
अनौखा है झील का बाड़ा का इतिहास

वरिष्ठ साहित्यकार रामवीर सिंह वर्मा बताते हैं कि भरतपुर के दक्षिण-पश्चिम भाग में बयाना के पास झील का बाड़ा नामक स्थान पर कैलादेवी का विशाल परिसर है। इस प्राचीन मंदिर का पुर्नरुद्धार महारानी गिर्राज कौर ने कराया था और वर्तमान देवी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा वर्ष 1923 ई. में की गई। पूर्व महाराजा बृजेंद्र सिंह इसी मंदिर में अष्ठमी की पूजा करने जाया करते थे। यहां बड़ा लक्खी मेला लगता है जो कि नवरात्र से आरंभ होकर पूरे दिन तक चलता है, लेकिन कोरोना महामारी की वजह से इस साल भी नवरात्र में मेला नहीं लग सकेगा। रियासतकालीन समय में एक बहुत बड़ा शामियाना झील का बाड़ा में लगाया जाता था। जहां पर महाराजा बृजेंद्र सिंह जल्दी पहुंच कर प्रथम स्नान किया करते थे एवं पीताम्बरी पहन कर पूजा अर्चना करते थे। मंदिर में महाराजा के पूजा करने की विशेष व्यवस्था की जाती थी। पुलिस आदि का पूरा इंतजाम होता था। महाराजा मंदिर परिसर में बैठकर देवी की पूजा करते थे। उसी समय मंदिर परिसर में देवी के भक्त जो भोपा नाम से जाने जाते हैं, अपना नाच व गायन प्रस्तुत करते थे। देश की अन्य देवियों की तरह महाराजा बली चढ़ा कर उन भोपों को इनाम देते थे। शामियाने के पीछे अलग एक कक्ष बनाया जाता था। उसमें दोपहर का सादा भोजन होता था। उसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों से आए गायक भजन प्रस्तुत करते थे। शाम की आरती करने के बाद महाराजा वापस भरतपुर अपने महल में आ जाते थे। इस प्रकार मेले में जाने से उनका जनसंपर्क बढ़ता था और साथ ही अनुष्ठान होते थे।

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