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बस्सी

समस्त शास्त्रों में गुरु की उपयोगिता तथा महत्ता : प्रेमानंद गोविन्द शरण महाराज

वृंदावनीय रसोपासना के पूजनीय सहचरी भावापन्न सिद्ध रसिक संत हित गौरांगी शरण उनके प्राणाराध्य गुरु है। जो वृंदावन की प्रेम लक्षणा भक्ति के प्रकट में साक्षात् उदाहरण हैं। राधावल्लभ सम्प्रदाय के गोस्वामी जी से शरणागत मंत्र लेने के पश्चात महाराज ने श्री हित गौरांगी शरण से ‘निज मंत्र’ की दीक्षा ली, जिससे श्रीजी की प्रिय ‘सहचरी, सखी या दासी’ के भाव के रूप में उपासना की यात्रा शुरू हुई।
 

बस्सीFeb 02, 2024 / 10:13 pm

Gaurav Mayank

समस्त शास्त्रों में गुरु की उपयोगिता तथा महत्ता : प्रेमानंद गोविन्द शरण महाराज

समस्त शास्त्रों में गुरु की उपयोगिता तथा महत्ता : प्रेमानंद गोविन्द शरण महाराज

जयपुर। श्री धाम वृंदावन में विराजमान श्रीश्यामा-श्याम के नाम, रूप, लीला, धाम निष्ठ रसिक संत श्री हित प्रेमानन्द गोविंद शरण महाराज (Premanand Govind Sharan Maharaj) अध्यात्म जगत् की एक विशिष्टतम विभूति हैं | वह निरन्तर सत्संग व सद्विचारों के द्वारा परमार्थ पथ की ओर अग्रसर साधकों का मार्गदर्शन कर रहे हैं एवं व्यवहार-प्रपंच, विषय-भोगों में फंसे लोगों में आध्यात्मिक चेतना का संचार कर रहे हैं |

वृंदावनीय रसोपासना के पूजनीय सहचरी भावापन्न सिद्ध रसिक संत हित गौरांगी शरण उनके प्राणाराध्य गुरु है। जो वृंदावन की प्रेम लक्षणा भक्ति के प्रकट में साक्षात् उदाहरण हैं। राधावल्लभ सम्प्रदाय के गोस्वामी जी से शरणागत मंत्र लेने के पश्चात महाराज ने श्री हित गौरांगी शरण से ‘निज मंत्र’ की दीक्षा ली, जिससे श्रीजी की प्रिय ‘सहचरी, सखी या दासी’ के भाव के रूप में उपासना की यात्रा शुरू हुई।

प्रेमानंद महाराज हमेशा अपने सत्संग व एकांतिक संवाद में अपने सद्गुरुदेव भगवान् के बारे में अपनी भावनाएं व्यक्त करते रहते हैं। वे प्रायः अपने प्रवचनों में कहते हैं कि गुरु और गोविन्द दोनों एक ही हैं, मनुष्य शरीर में होने के बावजूद सद्‌गुरु मनुष्य नहीं होते, अपितु स्वयं परब्रह्म परमात्मा ही हमारे कल्याण के लिए हमारी तरह रूप धारण करके आते हैं। अतः गुरु को साक्षात् परब्रह्म ही समझना चाहिए। वे कहते हैं कि बिना गुरु-कृपा के परमार्थ मार्ग में कोई चल ही नहीं सकता। वह चाहे भगवान् शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो, गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई, जौ बिरंचि संकर सम होई।

प्रेमानन्द महाराज को जो कुछ भी दिव्यता प्राप्त है, वे उसे अपनी किसी साधना का फल नहीं बल्कि केवल गुरु कृपा प्रसाद ही मानते हैं। बाल्यावस्था से ही गृहत्याग कर 13 वर्ष अल्पायु में ही वे साधन पथ पर चल पड़े थे। अतः अपने प्राप्त अनुभवों के आधार पर उनका इसी बात पर जोर रहता है कि केवल गुरु कृपा। वे कहते हैं कि समस्त शास्त्रों में गुरु की उपयोगिता तथा महत्ता बतायी गयी है। गुरु की अपार महिमा हैं, उनके द्वारा किए गए उपकारों की कोई सीमा नहीं होती। अत: किसी भगवत्प्राप्त, श्रेष्ठ, अनुभवी संत-महात्मा को गुरु बनाकर उनके शरणागत होकर उनके निर्देशन में ही साधक को साधना करनी चाहिए।

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