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बाड़मेर

13 अगस्त 1947- भारत पाकिस्तान अलग हो रहे थे और बस रहा था गडरारोड़

– पाकिस्तान का 1947 का एक व्यापारिक कस्बा गढड़ा सिटी, भारत में आकर बन गया गडरारोड़
 

बाड़मेरAug 13, 2019 / 11:07 am

भवानी सिंह

village Gadra Road left Pak

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भीख भारती गोस्वामी@ गडरारोड़ (बाड़मेर ). 13 August 1947..। India – Pakistan के बंटवारे की तैयारियां। दोनों देशों के बीच में सरहद खींची जानी थी। इस सरहद के इधर रहा वो भारतीय और उधर रहा वो पाकिस्तानी। लोग पशोपश में थे कि कहां जाएं? अपनी जमीन-जायदाद और परिवार को छोडऩे का निर्णय और वो भी एकदम कैसे लिया जाए। तब एक बसे बसाए शहर के 65 प्रतिशत लोगों ने एक साथ फैसला किया कि वे भारत में रहेंगे और रातोंरात आ गए। 14 अगस्त को पाकिस्तान आजाद हुआ तब तक पाकिस्तान की गढड़ासिटी आधी से अधिक खाली हो गई और भारत में गडरारोड़ बस गया।
आजादी से पहले पश्चिमी सीमा Western Border के बाड़मेर जिले के मुनाबाव से लेकर आगे सिंध का पूरा इलाका था। तय हो गया कि अब बाड़मेर जिले के मुनाबाव के बाद सरहद खींची जाएगी और उधर के सारे गांव पाकिस्तान में रह जाएंगे। गडरारोड़ से सात किलोमीटर दूरी पर ही गढड़ासिटी पाकिस्तान का बड़ा कस्बा था, जिसमें करीब 5000 की आबादी थी। सर्वाधिक माहेश्वरी इसके अलावा सभी कौमें। यह उस समय का सिंध प्रांत का बड़ा व्यापारिक कस्बा था देशी घी, ऊन, गोंद, ग्वार, गूगल, कुम्मट और सूखे मेवे का व्यापार होता था। जोधपुर-हैदराबाद के बीच में रियासत काल से रेल चलती थी और गडरासिटी उसका स्टेशन केन्द्र बिन्दु व्यापारिक मण्डी के नाते ही था। रेलवे स्टेशन से सात किलोमीटर दूरी पर ही गढड़ासिटी बसी थी।
रातों रात लिया फैसला
– भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समाचार उन दिनों चर्चा में थे और इधर गडरासिटी में भी छत्तीस कौम इस पर द्वन्द्व में थी कि अब क्या होगा। जैसे ही पता चला कि रेलवे स्टेशन भारत में रहेगा और सिटी पाकिस्तान में तुरंत 65 प्रतिशत लोगों ने एक साथ गडरासिटी से पलायन कर दिया और 13 अगस्त को ये लोग गडरारोड़ में आकर बस गए।
सारा गांव हो गया खाली

– 13 अगस्त 1947 को 65 प्रतिशत लोग यहां पहुंचे और उन्होंने तरीके से शहर को बसाया। इसके बाद भारत-पाक बंट गए। 1965 और 1971 का युद्ध हुआ तो गढड़ासिटी के शेष 35 प्रतिशत लोग भी गडरारोड़ आकर बस गए। अब गडरारोड़ में सिटी के सारे लोग है जो पाकिस्तान से आए हुए हैं।
1965 में सेना की मदद से ले आए कान्हा
– गढड़ासिटी से आए लोगों ने 1965 का युद्ध हुआ तो सेना से आग्रह किया कि वे तो आ गए, लेकिन उनके कन्हैया की मूर्ति सिटी में है। सेना की मदद से मुरलीधर जोशी और उनके साथी कृष्ण की प्रतिमा भी ले आए, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा पिछले साल की गई।
गडरारोड़ को भारत ने दिया सबकुछ

– गडरारोड़ की वतज़्मान आबादी 12000 के करीब है। हाल ही में यह उपखण्ड कायाज़्लय हो गया है। गढड़ासिटी की तरह गडरारोड़ भी अब बॉडज़्र की बड़ी व्यापारिक मण्डी बन गया है। 26 ग्राम पंचायतों के लोग यहां से सीधे जुड़े हुए है। सेना के लिए 1965 और 1971 के युद्ध में यह कस्बा मददगार रहा है। करगिल और उसके बाद जब भी बॉर्डर पर तनाव की स्थिति बनती है, गडरारोड़ के लोग सेना के लिए राशन-पानी की सुविधा के लिए तत्पर रहते हैं।
निर्णय पर गर्व है
– उस समय मेरी उम्र 13-14 साल की थी। गांव में यह बात फैली थी कि अब दो मुल्क हो जाएंगे। जिन्ना का पाकिस्तान होगा और गांधीजी भारत के साथ हैं। सारे गांव ने तय किया कि हम तो भारत में ही रहेंगे और गडरारोड़ आकर बसा लिया। उस समय गांव के लोग भाई-भाई की तरह रहते थे और एक-दूसरे की मदद करते थे। कुछ लोग रह गए वो भी बाद में आ गए। हमें गर्व है कि हमारा निर्णय सही था। – इन्द्रदान चारण, गडरारोड़
वहां से बेहतर बसा लिया

– पाकिस्तान में हम अपना शहर छोड़ आए जो अब वीरान है। यहां हमने अपना शहर बसा लिया। पाकिस्तान में रहते तो पता नहीं कितनी ज्यादती सहते। आज हमें गवज़् है कि हम ऐसे देश में है जहां पर पाकिस्तान से बसा एक गांव वैसा ही आबाद है जैसा वहां 1947 में था, उससे भी कहीं बेहतर। – उत्तमचंद भूतड़ा, गडररारोड़

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