रेगिस्तान, पहाड़ी और पठार में तीन दशक पहले इतनी औषधीय पादप थे जिनका देसी इलाज रामबाण से कम नहीं था। सांप का जहर उतारने से लेकर गर्भवती महिला के प्रसव के दिनों में उपयोगी औषधीयां हों या फिर हड्डियां टूटने पर जोडऩे के पौधे। यहां अंग्रेजी दवाइयां की अनुपलब्धता में देसी लोग इन्हीं पौधों,झाडिय़ों और पेड़ों से अचूक उपचार करते रहे है लेकिन विलायती बबूल आने से ये प्रजातियां अब खत्म होने लगी है। जहां थोड़ी बहुत बचीखुची है वहां पर भी यह बबूल तीव्र गति से फैल रहा है। इसको रोकने, नष्ट करने और पादपों को बचाने को लेकर वनविभाग के पास कोई बड़ी योजना नहीं है। थार के रेगिस्तान में करीब 40 साल पहले विलायती बबूल की झाडिय़ां नहीं थी। बढ़ते रेगिस्तान को रोकने के लिए वनविभाग ने इस विषझाड़ को गांव-गांव में फैला दिया। वन विभाग ने वनक्षेत्र में तारबंदी करवाकर इसकी सुरक्षा पर राशि खर्च की और इसको पनपाने का कार्य किया। इधर गांवों की जमीन पर भी यह विषझाड़ दिन दूना औैर रात चौगुना फैलने लगा। रेगिस्तान में हरियाली नजर आने लगी लेकिन यह हरियाली दस साल बाद ही जहर लगने लगी। इस विषझाड़ ने थार की मूल वनस्पति और पेड़ों को ऐसा नष्ट करना शुरू किया कि उनके पनपना मुश्किल हो गया।
ओरण-गोचर में बबूल ही बबूल ओरण गोचर में पहले देसी बैर, खेजड़ी, जाळ और कैर की झाडिय़ों की बहुतायत रहती थी। ये सभी पौधे थार केे लोगों के जीवनचक्र से जुड़े थे। देसी बैर दीपावली के दिनों में मीठे फल देते है। इसकी पत्तियां बकरियों के लिए विशेष खाद्य है, बाड़मेर में 25 लाख के करीब भेड़ बकरियां है। कांटेदार बाड़ बनाने और लकड़ी ईंधन के लिए उपयोगी रही। खेजड़ी का फल सांगरी प्रमुुख खाद्य है। पत्तियां बकरियों व ऊंट का प्रमुख आहार रहा है। जाळ के पीलू औषधीय महत्व र खते है और कैर भी। बबूल के आने के बाद ओरण गोचर में इन पौधों की संख्या लगातार घट रही है और बबूल इनको लगभग खत्म कर रहा है।
औषधीय पौधे खा गया जहां पर पठार, पहाड़ जैसा इलाका है वहां रेगिस्तान में अश्वगंधा, सतावरी, सफेद मूसली, ब्राह्मी, अर्जुन, ग्वारपाठा, सोनामुखी, गुगल, सनॉय जैसे औषधीय पौधों की बहुतायत रही। ये पौधे बीमारी में देसी इलाज की अचूक उपचार रहे है। इन पौधों और पेड़ को भी बबूल ने इतना नष्ट किया हैै कि अब तो यह ढूंढने पर ही कहीं-कहीं नजर आते है। चौहटन, सिवाना, मोकसलर, जूना पतरासर, बाड़मेर, मारूड़ी, बिशाला की पहाडिय़ों में इन पौधों की बहुतायत र ही है। अनमोल पौधों को बचाने की कोई योजना नहीं वनविभाग भी इस बात को महसूस कर रहा है जिन औषधीय प ौधों से जड़ी बूटियां, दवाइयां बन रही है। अब जिनकी मांग विदेश तक है,उनको बचाने के लिए कोई योजना नहीं है। महज दस लाख रुपए में वनक्षेत्र में बबूल को नष्ट करने के लिए दिए गए है, जो ऊंट के मुंह में जीरा है। बबूल लगातार इन पौधों के पनपने के स्थान को खा रहा है। मनरेगा में बबूल को खत्म करने की बने योजना मनरेगा योजना में बबूल को नष्ट करने को शामिल किया जा सकता है। इसके लिए प्रदेशभर में अभियान चलाया जाए। मनरेगा में बबूूल बहुतायत क्षेत्रों में विषझाड़ को खत्म करने की तीन साल की लगातार योजना बने। जड़ से इनको उखाड़ा जाए। पंचायत की जमीन पर यह कार्य ग्राम पंचायतों के माध्यम से हो सकता है। इसके लिए सरकार मस्टररोल जारी करे। ग्राम पंचायतों में बबूूल को खत्म करने के बाद वहां अन्य कौनसे पौधे उगाने है,इसकी योजना लाई जाए।