खुमार बाराबंकवी की पुण्यतिथि के मौके पर आज उनकी जिंदगी की बातें करेंगे। साथ ही उनकी गजलों-गीतों से भी आपको रूबरू कराते चलेंगे। खुमार के पिता और चाचा दोनों शायर थे। ऐसे में बहुत कम उम्र से ही खुमार भी शेर कहने लगे।
मुझको शिकस्त-ए-दिल का मजा याद आ गया
तुम क्यों उदास हो गए क्या याद आ गया।
कहने को जिंदगी थी बहुत मुख्तसर मगर
कुछ यूं बसर हुई कि खुदा याद आ गया।
बरसे बगैर ही जो घटा घिर के खुल गई
इक बेवफा का अहद-ए-वफा याद आ गया।
हैरत है तुमको देख के मस्जिद में ऐ ‘खुमार’
क्या बात हो गई जो खुदा याद आ गया।
बरेली में पढ़ा पहला मुशायरा
खुद को मस्जिद में देखकर हैरत करने वाले खुमार ने साल 1938 में बरेली में पहली बार मुशायरा पढ़ा। इस वक्त खुमार 19 साल के थे। तरन्नुम में पढ़ने के उनके अंदाज ने लोगों को दीवाना बना दिया। खासतौर से उनका एक शेर लोगों की जुबान पर चढ़ गया। शेर है-
वाकिफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से
इस राज को पूछो किसी बरबाद-ए-नजर से।
1940 के दशक में मजरूह सुल्तानपुरी, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी और फैज अहमद फैज जैशे शायर छाए हुए थे। इतने बड़े नामों के बीच भी खुमार ने कुछ सालों में ही अपना नाम बना लिया। उनका तरन्नुम में शेर पढ़ना, शेर पढ़ते ही आदाब कहना सुनने वालों को ऐसा पसंद आया कि पूरे हिंदुस्तान में खुमार मशहूर हो गए।
वही फिर मुझे याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं हटाए थे जो राह से दोस्तों की
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं कयामत यकीनन करीब आ गई है
‘खुमार’ अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं।
खुमार बाराबंकवी की शायरी का चर्चा कुछ ही साल में मुंबई तक भी पहुंच गया। निर्देशक एआर कारदार ने उनको ‘शाहजहां’ फिल्म के लिए गीत लिखने का न्योता दिया। इसके बाद तो खुमार ने कई फिल्मों के गाने लिखे। तलत महमूद का गाया उनका गाना ‘तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती’ तो आज भी खूब मकबूल है।
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फिल्मों में 60 के दशक के बाद बदलाव आने शुरू हुए तो खुमार को ये कुछ जंचा नहीं। धीरे-धीरे वो वापस मुशायरों की तरफ ज्यादा ध्यान देने लगे। शायद उनको जो गीत लिखे जा रहे थे, वो पसंद नहीं आ रहे थे। उनकी ही गजल का एक शेर है-
जज्बात में वो पहली सी शिद्दत नहीं रही।
खुमार साहब ने 4 किताबें- शब-ए-ताब, हदीस-ए-दीगर, आतिश-ए-तर और रख्स-ए-मचा लिखी हैं। उनकी लिखी गजलों को देश की कई यूनिवर्सिटीज ने उर्दू के सिलेबस में शामिल की हैं। 4 दशक से ज्यादा उर्दू गजल की खिदमत करने वाले खुमार लंबी बीमारी के बाद 19 फरवरी, 1999 को दुनिया छोड़ गए थे। खुमार को दुनिया छोड़े 23 साल बीत गए हैं लेकिन उनके शेर आज भी शायरी के शौकीनों को झूमने पर मजबूर कर रहे हैं। वो खुद ही कह गए हैं-
न हारा है इश्क, न दुनिया थकी है,
दीया जल रहा है, हवा चल रही है।