कर्मों के अनुसार भाग्य का निर्धारण हम स्वयं करते हैं-देवेंद्रसागर
बेंगलूरु. राजाजीनगर के सलोत जैन आराधना भवन में आचार्य देवेंद्रसागर सूरी की निश्रा में तपस्वियों के पारणा महोत्सव का आयोजन हुआ। आचार्य ने कहा कि लक्ष्य आध्यात्मिक हो या सांसारिक, अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। पुरुषार्थ के अलावा और दूसरा कोई माध्यम नहीं है। मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्तियां और अलमारी में लगी हुई पुस्तकों को भी रोज देखने और पढऩे मात्र से न तो भगवान के गुण विकसित हो पाएंगे, और न ही हमारे ज्ञान में वृद्धि होगी। क्योंकि इन दोनों में ही एक बड़ी विशेषता यह है कि मूर्ति के गुण मन के अंतर तक बैठ गए तो भगवान, नहीं तो वह केवल कलाकार की एक कृति भर ही है। पुस्तकों के अक्षर मन में अंकित हों, आचरण में आएं तो पवित्र ग्रंथ, अन्यथा मात्र कागज पर व्यवस्थित रूप से फैलाई गई स्याही ही तो है। उन्होंने कहा कि भाग्य एक किताब है, जिसमें लिखा तो है, परंतु बिना पढ़े न तो वह समझ आएगी न उसका ज्ञान मिलेगा और न ही उसका फल। यह पढऩा ही कर्म है, पुरुषार्थ है, जिसे भाग्य की चाबी कहते हैं। भाग्य एक रास्ता है। उस रास्ते पर जो हमने फैसले लिए और जो किया, वही पुरुषार्थ हमारे जीवन को नियंत्रित या सुव्यवस्थित करता है। भाग्य एक अदृश्य की लिपि है और लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों द्वारा परिश्रम करना ‘पुरुषार्थ’ है। सफलता का रास्ता मेहनत से होकर ही जाता है। इसके लिए कोई अन्य विकल्प नहीं है। लक्ष्य पैरों में पहने हुए जूतों के बल पर नहीं मिलता। लक्ष्य पर सिर्फ अपने दृढ़ संकल्प और कदमों के पुरुषार्थ के सहारे ही पहुंचा जा सकता है। कागज पर जब कोई चित्रकार तूलिका से रंग लगाता है तो वह सुंदर और आकर्षक छवि बनकर स्वयं को आत्मसंतोष और दूसरों को भी प्रफुल्लता, प्रेरणा प्रदान करती है। ऐसे ही हमारा पुरुषार्थ भी एक कुशल चितेरे के रूप में पत्थर को भगवान और कागजों पर बिखरी स्याही को वेद-पुराण में परिवर्तित करेगा। हजारों मील की चर्चा करने वाले भी बिना एक कदम चले आगे नहीं बढ़ पाते। जिन्हें अपने पुरुषार्थ पर भरोसा होता है, वे भाग्य पर नहीं बल्कि खुद के भरोसे पर ज्यादा ध्यान देते हैं। हमारे आचरण और कर्मों के अनुसार हमारे भाग्य का निर्धारण हम स्वयं करते हैं, न कि कोई दूसरी अलौकिक शक्ति। किसी की कोई मजाल नहीं है कि वह अपने मार्ग पर बढ़ रहे राहगीर को रोक सके।