बेंगलूरु. शहर के गवीपुरम स्थित प्राचीन गवी गंगाधरेश्वर गुफा
मंदिर में रविवार को
सूर्य के भगवान
शिव के नमन करने की घटना को देखने के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु पहुंचे। इस मंदिर में हर साल मकर संक्रांति के मौके पर शाम में सूर्य की किरणें मंदिर के प्रवेश द्वार पर स्थापित नंदी की प्रतिमा के सींगों को छूते हुए शिवलिंग को स्पर्श करती हैं। मकर संक्रांति के दिन हर साल यह दृश्य और इस अनूठे मंदिर की ख्याति श्रद्धालुओं को यहां खींच लाती है। रविवार को भी जन सैलाब उमड़ा।
सुबह से ही इस नजारे को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोगों के यहां पहुंचने का क्रम शुरू हो गया था। जैसे-जैसे दिन ढलता गया, लोगों की भीड़ भी बढ़ती गई। सूर्य देव अपनी गति से अस्ताचल की ओर जा रहे थे और मंदिर परिसर में जमा हुए श्रध्दालुओं की उत्सुकता चरम पर पहुंच रही थी। आखिरकर, सूर्यास्त का समय भी आ गया और भगवान आदित्य की किरणें मंदिर के खंभों को छूती हुई बढ़ी व नंदी के सिंगों के बीच से होते हुए गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग के पैरों तक पहुंची तो ऐसा लगा जैसे जग के त्राता स्वयं शिवलिंग का दर्शन करने पहुंचे हों। सूर्य की किरणों से शिवङ्क्षलग की चमक बढ़ी और मंदिर परिसर में मौजूद हजारों चेहरे भी चमक उठे। हृदय में श्रद्धा व भक्ति की हिलोर उठी और जयकारे से मंदिर के साथ ही गुफा भी गुंजायमान हो गई। करीब ३ मिनट तक शिवलिंग सूर्य की रोशनी में सोने जैसा चमकता रहा। इस दौरान मंदिर के पुजारियों व पंडितों ने भगवान का दूध, जल सहित अन्य द्रव्यों से मंत्रोच्चार के साथ अभिषेक किया। बाहर इस नजारे को देखने के लिए जुटी हजारों की भीड़ जयकारे लगा रही थी। इस दृश्य को लोगों ने अपलक निहारा, कैमरे में कैद किया और स्मृतियों में संजोया। इस अद्भूत नजारे को अधिक से अधिक श्रद्धालुओं को दिखाने के लिए देवस्थान विभाग की ओर से मंदिर के बाहर बड़ी स्क्रीन भी लगाई गई। स्थानीय लोगों के साथ विदेशी पर्यटकों में भी इस दृश्य को लेकर उत्सुकता रही और उनके कैमरे चमकते नजर आए। दिनभर मंदिर के आस-पास मेले का सा माहौल रहा। करीब तीन मिनट के बाद सूर्य की रोशनी शिवलिंग से हटी व सूर्यास्त हुआ। देर रात तक मंदिर में दर्शन के लिए लोगों का तांता लगा रहा।
नौवीं शताब्दी का मंदिरमाना जाता है कि नौवीं शताब्दी में बेंगलूरु के संस्थापक केंपेगौड़ा ने इस मंदिर का निर्माण प्राकृतिक गुफा में करवाया था। 16 वीं शताब्दी में बेंगलूरु के संस्थापक कैंपेगौड़ा प्रथम ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार व विस्तार करवाया। इस मंदिर का कलात्मक उल्लेख 1792 के ब्रिटिश कलाकार जेम्स हंटर के बनाए चित्रों में भी मिलता है। मंदिर में गवि गंगाधरेश्वर (शिवलिंग) के अलावा यहां गणेश, सप्त माता तथा दो सिर, आठ हाथ वाले अग्निमूर्ति, नाग देवताओं की प्रतिमाएं हैं। इसके अलावा यहां एक शिला में स्थापित शिवजी का त्रिशूल तथा डमरु भी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।
दक्षिण का काशीइस मंदिर को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है। कन्नड़ में गवी का अर्थ गुफा होता है। गुफा में स्थित होने के कारण ही यह गवी गंगाधरेश्वर के नाम से मशहूर हुआ। ऐसा माना जाता है कि यहां पर गौतम मुनि ने लम्बे समय तक तपस्या की थी जिसके प्रताप से यहा पर शिव,पार्वती एवं नंदी का उद्भव हुआ। जिसके कारण इसे गौतम क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि भारद्वाज मुनि ने भी यहां पर तपस्या की थी। यह गुफा मंदिर मुनियों की तपस्या स्थली व दक्षिणाय मूर्ति होने से सिद्ध मंदिरों की गिनती में आता है। मंदिर के आगे दुर्लभ ग्रेनाइट पत्थर के विजयनगर शैली में चौदह खंभों के मंडप का निर्माण बेंगलूरु के संस्थापक कैंपेगौडा ने करवाया था। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में विशाल शिवलिंग है। शिवलिंग के दाईं और से निरंतर जलधारा बहते रहने से इनका नाम गंगाधरेश्वर पड़ा। दंतकथाओं के मुातबिक इस मंदिर से पहले तीन तीर्थों शिवगंगा, सिद्धगंगा व काशी के लिए भूमिगत मार्ग जाता था।
विशेष स्थापत्य कला की देन माना जाता है कि विशेष स्थापत्य कला के कारण ही सूर्य की रश्मियां एक विशेष स्थिति में इस तरह शिवलिंग का स्पर्श करती हैं। उस समय शिल्पकला में निपुण कारीगरों ने मंदिर की वास्तु रचना इस तरीके से बनाई कि मकर संक्राति पर शाम को एक गवाक्ष (खिड़की) से होकर मंदिर में प्रवेश करने वाली सूरज की किरणें शिवलिंग के सामने स्थित नंदी के सींगों के बीच से गुजर कर शिवलिंग तक पहुंचती हैं।
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