वर्ष 2005 में इस परियोजना का प्रस्ताव आया था लेकिन अब इसमें और अधिक विलंब की संभावना है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि के डायवर्सन पर अधिकारियों के विरोधाभासी रुख का उल्लेख करते हुए नए सिरे से पर्यावरण के प्रभाव का आकलन करने का आदेश दे दिया। विकास में पर्यावरण संरक्षण को एक मुख्य घटक बताते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि पर्यावरणीय मानदंडों के अनुपालन में कोई कमी नहीं की जा सकती।
वर्ष 2014 में दी गई परियोजना की अंतिम पर्यावरणीय मंजूरी वर्ष 2009 और 2010 में एकत्रित आंकड़ों पर आधारित थी जिसमें संदर्भ की अवधि समाप्त हो चुकी थी। यह केंद्र सरकार की ओर से जारी दिशा निर्देशों का भी उल्लंघन था। डीवाइ चंद्रचूड़ और हेमंत गुप्ता की पीठ ने परियोजना के लिए इस्तेमाल की जाने वाली 1.5 हेक्टेयर वनभूमि के बदले 25 एकड़ जमीन आवंटित करने में देरी पर बीडीए की खिंचाई भी की।
अदालत ने बीडीए द्वारा परियोजना के लिए गिराए जाने वाले पेड़ों की सही संख्या का खुलासा नहीं करने पर भी नाराजगी जाहिर की और उसे नोट किया। बीडीए ने दावा किया था कि केवल 200 से 500 के बीच पेड़ गिराए जाएंगे जबकि वन उपसंरक्षक ने खुलासा किया था कि 16 हजार 785 पेड़ काटने के प्रस्ताव हैं।
अदालत ने बीडीए की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान और संजय एम.नुली के उस दलील को खारिज कर दिया कि नए सिरे से पर्यावरणीय मंजूरी हासिल करने से परियोजना में देरी होगी और लागत 1 हजार करोड़ से बढक़र 1200 करोड़ रुपए तक हो जाएगी।
इस संदर्भ में अदालत ने राष्ट्रीय हरित पंचाट के 8 फरवरी 2019 के आदेश को बरकरार रखा जिसें नए सिरे से पर्यावरणीय मंजूरी हासिल करने का निर्देश था। उसने बीडीए को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि पेट्रोलियम पाइपलाइनों को कोई भी नुकसान नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रस्तावित सडक़ का निर्माण उसके ऊपर से किया जाना है।
पीठ ने स्पष्ट किया कोई अन्य अदालत या न्यायाधिकरण को पर्यावरण प्रभाव आकलन पर पंचाट के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका स्वीकार नहीं कर सकता। इसे केवल शीर्ष अदालत के समक्ष ही उठाया जा सकता है।