इस आविष्कार के जनक आइआइएससी में बायोसिस्टम्स साइंस एंड इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर रचित अग्रवाल ने ‘पत्रिका’ को बताया कि अभी जो दवाएं उपयोग में लाई जाती हैं उनके साथ दिक्कत यह है कि वह जल्दी ही जोड़ों से निकल जाती हैं। हमारा प्रमुख इनोवेशन यह है कि दवा की आपूर्ति के ऐसे तरीके बनाए हैं जिससे वह लंबे समय तक टिके रहे। आंकड़े दिखाते हैं कि जब इन कणों के साथ दवा क्षतिग्रस्त उपास्थियों तक पहुंचाई जाती है तो वह लगभग 20 से 30 दिनों तक टिकी रहती है। इससे क्षतिग्रस्त उपास्थियों में धीरे-धीरे दवा का प्रवाह समान तरीके होता रहता है और कोशिकाओं की मरम्मत हो जाती है।
उन्होंने बताया कि अगर किसी रोगी को सप्ताह में एक बार इंजेक्शन लेने की जरूरत है तो उसे महीने में एक बार डोज लेना पर्याप्त होगा। अगर किसी रोगी को ऑपरेशन की जरूरत है तो संभव है उसकी नौबत नहीं आए अथवा 5 की जगह 20 साल बाद आए। अगर किसी एथलीट अथवा सैनिक को भी दौडऩे-भागने या कूदने के कारण ऐसी बीमारी का शिकार होना पड़ता है तो उसके लिए भी यह उपचार काफी कारगर साबित होगा।
प्रोफेसर अग्रवाल ने बताया कि वर्ष 2018 से ही यह शोध चल रहा है और अभी जारी है। चूहों पर किए गए प्रयोग का परिणाम उत्साहजनक रहा है। इसके व्यावहारिक उपयोग में अभी वक्त लगेगा क्योंकि हर प्रयोग के बाद दो से तीन महीने की निगरानी आवश्यक होती है। उन्होंने बताया कि क्लीनिकल ट्रायल शुरू होने के बाद मनुष्यों पर प्रयोग होगा और तब इसका इस्तेमाल कर पाएंगे। लेकिन, इसमें अभी 5 वर्ष से अधिक समय लगेगा।