आजमगढ़

मायावती के लिए आसान नहीं हासिल करना पूर्वांचल में खोया वर्चस्व, यह है खास वजह

2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा की जमीन दरक चुकी है। कई बड़े नेता साथ छोड़ चुके हैं। निकाय चुनाव को लेकर कार्यकर्ताओं में उत्साह की कमी साफ दिख रही है। दूसरी पार्टियों की अपेक्षा दावेदार भी कम हैं।

आजमगढ़Dec 03, 2022 / 03:21 pm

Ranvijay Singh

पूर्व मुख्यमंत्री मायावती

बसपा निकाय चुनाव में पूरी ताकत से मैदान में उतरने का दावा कर रही है। नेता कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे हैं। कार्यकर्ता चुप्पी साधे हैं। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा की जमीन खिसक चुकी है। पार्टी के पास विधायत तक नहीं है। बड़े नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या पार्टी खोया हुआ वर्चस्व फिर हासिल कर पाएगी। आइए जानते हैं क्या है जमीनी हकीकत।

 

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कुछ बड़े चेहरों को मायावती ने पार्टी से निकाला
कभी बसपा में पूर्वांचल के नेताओं का वर्चस्व हुआ करता था। लालजी वर्मा हो या फिर सुखदेव राजभर, ये बसपा के बडे नेता माने जाते थे। पंचायत चुनाव के बाद मायावती ने कुछ को पार्टी से स्वयं निकाल दिया तो कई नेता खुद उनका साथ छोड़ दिए। इससे पार्टी काफी कमजोर हुई। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा को यूपी में सिर्फ एक सीट मिली।

राम अचल राजभर की संगठन में मजबूत थी पकड़
राम अचल राजभर की गिनती बसपा के कद्दावर नेताओं में होती थी। उन्हें बसपा में संगठन का शिल्पकार कहा जाता था। वे अकबरपुर से पांच बार विधायक चुने गए थे। मायावती ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया था। वर्ष 2021 में मायातवी ने उन्हें पार्टी से निकाला तो वे सपा के साथ चले गए।

काफी रसूखदार नेता थे लालजी वर्मा
लालजी वर्मा की गिनती रसूखदार नेताओं में होती थी। लालजी वर्मा और रामअचल राजभर बसपा की सभी सरकार में मंत्री रहे। इन्हें भी मायावती ने पार्टी विरोधी गतिविधियों में रामअचल के साथ वर्ष 2021 में पार्टी से निकाल दिया था। अब लालजी वर्मा भी सपा के साथ है।

लालजी वर्मा

संस्थापक सदस्य बलिहारी बाबू ने सबसे पहले छोड़ बसपा
आजमगढ़ के रहने वाले पूर्व सांसद बलिहारी बाबू बसपा के मजबूत दलित चेहरा था। वे बसपा के संस्थापक सदस्य थें। कांशीराम बलिहारी की गिफ्ट की हुई जीप से चलते थे। मायावती उन्हेें भी नहीं संभाल पाई। वर्ष 2012 में मायावती से नाराज होकर उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। इसके बाद 2014 में कांग्रेस से लालगंज से चुनाव लड़े। वर्ष 2017 मायावती ने उनकी घर वापसी कराई लेकिन वर्ष 2020 में वे सपा के हो गए। अब वे इस दुनियां में नहीं है लेकिन उनका पूरा परिवार सपा के साथ खड़ा है।

 

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सुखदेव राजभर

सुखदेव का जाना बसपा के लिए सबसे गहरी चोट
आजमगढ़ के ही रहने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर बसपा के प्रमुख रणनीतिकार था। उन्हें भी मायावती साथ लेकर नहीं चल पाई। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने मायावती पर गंभीर आरोप लगाते हुए बसपा छोड़ दी। उनके पुत्र कमलाकांत अब दीदारगंज से सपा के विधायक हैं।

 

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गुड्डू जमाली की घर वापसी से बसपा को राहत
बसपा ने पूर्व विधायक गुड्डू जमाली को विधानमंडल का नेता बताया था। जमाली ने 25 नवंबर 2021 को बसपा छोड़ दिया था। बाद वे एआईएमआईएम के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़े। वर्ष 2022 के लोकसभा उपचुनाव के पहले उन्होंने फिर बसपा में वापसी की। पूर्वांचल में मायावती के लिए यही एक राहत भी खबर है।

वंदना सिंह

वंदना सिंह ने थामा बीजेपी का दामन
वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले बसपा विधायक वंदना सिंह भी पार्टी छोड़कर बीजेपी के साथ चली गई थी। बीजेपी ने उन्हें चुनाव भी लड़ाया लेकिन वे हार गई।

मुख्तार परिवार भी नहीं रहा साथ
पूर्वांचल में कभी मुख्तार अंसरी का परिवार भी बसपा के साथ हुआ करता था। इससे गाजीपुर, मऊ, वाराणसी में बसपा को काफी लाभ होता था। अब यह परिवार भी बसपा के साथ नहीं है। अफजाल अंसारी बसपा के सांसद हैं लेकिन उनका पूरा कुनबा सपा के साथ खड़ा है।

सपा ने सबसे अधिक पहुंचाई चोट
बसपा को सबसे अधिक चोट सपा ने पहुंचाई है। मायावती ने जिस भी नेता को पार्टी के बाहर का रास्ता दिखाया अथवा जो स्वयं पार्टी छोड़ा उसे अखिलेश ने अपने साथ जोड़ लिया। इससे सपा मजबूत होती गई और बसपा का जनाधार गिरता गया।

बसपा में गैर दलित नेताओं का आकाल
वर्तमान में बसपा में गैर दलित नेता का आकाल सा पड़ गया है। खासतौर पर अतिपिछड़े वर्ग का। अतिपिछड़े ही कभी बसपा के जीत का आधार होते थे। अब बसपा के पास कोई ऐसा बड़ा अतिपिछड़ा नेता नहीं है जिसके नाम पर मतदाता पार्टी के साथ जुड़ सके।

 

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निकाय चुनाव में यह होगी बसपा की चुनौती
बसपा पूरी ताकत से निकाय चुनाव में उतरने का दावा कर रही है। जोनल कोआर्डीनेटर से लेकर जिलाध्यक्ष तक तैयारी में जुटे है। दावेदार भी मैदान में दिख रहे हैं लेकिन दूसरे दलों की अपेक्षा इनकी संख्या काफी कम है। ऐसे में मजबूत दावेदार का चयन बसपा के लिए बड़ी चुनौती होने वाली है।

दूसरी तरफ पार्टी में सिर्फ मायातवी ऐसी नेता बची हैं जो अपनी सभा से अपने वोटबैंक को एकजुट करने में सक्षम है। बाकि कोई चेहरा नहीं है कि जो भीड़ भी जुटा सके। मायावती के लिए सभी सीटों तक पहुंच बनाना अकेले संभव नहीं होगा। जबकि विपक्ष के पास जातिगत आधार पर भी नेताओं की भरमार है। खासतौर पर सपा और बीजेपी इस मामले में बसपा पर भारी दिख रही है।

क्या कहते हैं राजनीति के जानकार
राजनीति में गहरी पकड़ रखने वाले डा. सुजीत भूषण श्रीवास्तव, डा. रणजीत सिंह का कहना है कि संघटनिक ढ़ांचा सबसे मजबूत था। अब पार्टी उतनी ही कमजोर है। बसपा के बेस वोट दलित में सपा और भाजपा सेंध लगाने में सफल रही हैं। पिछले चार चुनाव में हार से कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट हुआ है। ऐसे में पार्टी से बहुत बड़ी जीत की अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा। बसपा इस चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के जरिए खुद की सर्व समाज में पैठ जरूर बना सकती है।

 

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