वर्ष 1934 में मिला नगर पंचायत का दर्जा
जब देश आजाद नहीं हुआ था उसी समय मुबारकपुर को नगर पंचायत का दर्जा मिल गया था। मोहम्मद अमीन गृहस्थ यहां के जमीनदार थे। उन्हें ही अध्यक्ष का चार्ज मिला। वे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी थे। उन्होंने 1934 से 1950 तक अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली। उनके बीमार होने पर 1950 से 1955 तक अध्यक्ष की जिम्मेदारी अब्दुल बारी ने संभाली। इन्हें निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया था।
1955 में हुआ पहला चुनाव
1955 में यहां पहला चुनाव हुआ। कांग्रेस के टिकट पर मैदान में उतरे हाजी अब्दुलाह ने जीत हासिल की। इसके बाद वर्ष 1960 से 1963 तक पूर्व विधायक अब्दुल हफीज भारती अध्यक्ष चुने गए। वर्ष 1963 में हाजी अब्दुलाह व 1966 में हाजी गुलाम नबी आजाद अध्यक्ष चुने गए।
1972 से 1988 तक प्रशासक के पास रहा चार्ज
वर्ष 1972 में चुनाव होना था लेकिन सरकार द्वारा चुनाव नहीं कराया गया। अध्यक्ष की जगह प्रशासक नियुक्त किए गए। वर्ष 1988 तक नगरपंचायत का कार्य प्रशासक ने देखा।
वर्ष 1988 में हुआ नगरपालिका का गठन
वर्ष 1988 में मुबारकपुर का नगर पालिका बनाया गया। पहले चुनाव में निर्दल हाजी मुख्तार अध्यक्ष चुने गए। हाजी मुख्तार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
वर्ष 1994 से सपा का वर्चस्व
मुबारकपुर नगरपालिका में वर्ष 1994 से अब तक सपा और बसपा का वर्चस्व कायम है। वर्ष 1994 में यहां डा. शकील अव्वल अध्यक्ष चुने गए थे। वे जनता दल से सपा में आए थे। इनका कार्यकाल मात्र ढाई साल का रहा। इसके बाद वर्ष 1997 में सपा की करीमुन्ननिशा पत्नी हाजी युनूस अध्यक्ष चुनी गई।
इसके बाद वर्ष 2001 में निर्दल डा. समीम अध्यक्ष चुने गए। वे वर्ष 2017 तक अध्यक्ष रहे। वर्ष 2017 में फिर हाजी युनूस की पत्नी करीमुन्ननिशा सपा से अध्यक्ष चुनी गई। अब सीट महिला के लिए आरक्षित की गई है।
बीजेपी का अब तक नहीं खुला खाता
बीजेपी को शहर की पार्टी कहा जाता है। शहरी क्षेत्रों में बीजेपी का वोट बैंक भी है, लेकिन मुबारकपुर में आज तक बीजेपी का खाता नहीं खुला है। बीजेपी के प्रत्याशी कभी यहां अपनी जमानत नहीं बचा पाए हैं।
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इस चुनाव में बीजेपी लगा सकती है मुस्लिम पर दाव
इस चुनाव में बीजेपी का पूरा फोकश पासमांदा मुस्लिम पर है। यहां पासमांदा मुस्लिम मतदाताओं की संख्या काफी अधिक है। नगरपालिका अध्यक्ष की कुर्सी उसी को मिलनी है जिनके साथ वे खड़े होंगे। ऐसे में बीजेपी भी इस बार मुस्लिम पर दाव लगाने की तैयारी में है। कई दावेदार भी दिख रहे हैं।
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वैसे बीजेपी के दाव सफल होना इतना आसान नहीं होगा। कारण कि आजमगढ़ के मुस्लिम मतदाता हमेंशा से उसे ही वोट करते रहे हैं जो बीजेपी को हराता है। उनके लिए कोई पार्टी मायने नहीं रखती है। इसका सीधा फायदा सपा और बसपा को मिलता है। इस बार भी कुछ ऐसा ही माहौल दिख रहा है लेकिन शिया के साथ ही पहली बार कुछ सुन्नी मतदाता भी बीजेपी की बात करते दिख रहे हैं।
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बीजेपी बढ़ी तो सपा-बसपा को होगी मुश्किल
बीजेपी चुनाव भले न जीते अगर वह पासमांदा मुसलमानों का साथ हासिल करती है तो विपक्ष की मुश्किल बढ़ेगी। कारण कि इन्हें सपा बसपा का वोट माना जाता है। विधानसभा और लोकसभा में वे इनकी जीत का कारण बनते हैं। अगर बीजेपी कुछ प्रतिशत भी वोट हासिल करती है तो सपा-बसपा के लिए लोकसभा चुनाव में चुनौती बढ़ जाएगी।