हालांकि ये एक विवादित विषय है कि, आखिर पहिये का असल अविष्कार कब और कहां हुआ। हिंदु धर्म ग्रंथों की बात करें तो इसका उल्लेख तकरीबन 5,000 साल के महाभारत में भी मिलता है। संक्षिप्त में ये समझिए कि हम 1900 के दशक की शुरुआत में लकड़ी के ‘आर्टिलरी व्हील्स’ के पहियों से 2020 के दशक में कार्बन फाइबर व्हील्स तक का सफर कर चुके हैं।
बहरहाल, हम यहां पर ऑटोमोबाइल सेक्टर की बात करने जा रहे हैं इसलिए पहियों का जिक्र करना भी जरूरी था। वैसे जानकारी के लिए बता दें कि, आधुनिक समय में जो हवा से भरे हुए (Pneumatic Tyre) टायर इस्तेमाल होते हैं, इसके अविष्कार का श्रेय यूनाइटेड किंगडम के रॉबर्ट विलियम थॉमसन को जाता है, इसका पेटेंट भी उन्हीं के पास सुरक्षित है।
समय के साथ न केवल पहियों का स्वरूप बदला बल्कि ऑटोमोबाइल सेक्टर और यातायात प्रणाली भी पूरी तरह से बदलती रही है। भाप इंजन से लेकर पेट्रोल-डीजल से चलने वाले इंजन और अब इलेक्ट्रिक वाहनों तक मानव जीवन को सुगम बनाने वाली ये खोज लगातार बदलती ही जा रही है। आज हम आपको ऑटोमोबाइल इतिहास में हुए उन 7 बड़े अविष्कारों के बारे में बताएंगे, जिन्होनें इंडस्ट्री को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है।
1- इलेक्ट्रॉनिक स्टेबिलिटी कंट्रोल (ESC):
सुरक्षित ड्राइविंग के लिहाज से ये एक बेहद ही उपयोगी अविष्कारों में से एक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इस तकनीक ने किसी भी इन्वेंशन के मुकाबले सबसे ज्यादा जानमाल की रक्षा की है, यहां तक कि अमेरिका में इस सिस्टम को हर वाहन में प्रयोग करने के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। आमतौर पर समझें तो ये एक कंप्यूटर सेंसिंग अंडरस्टीयर (फ्रंट व्हील्स स्लिपिंग) या ओवरस्टीयर (रियर व्हील्स स्लिपिंग) है जो कि आपात स्थित में ऑटोमेटिक तरीके से ब्रेक या थ्रॉटल लागू करता है और ड्राइवर को वाहन पर नियंत्रण बनाए रखने की सुविधा देता है।
तकनीकी रूप से, 1983 में टोयोटा क्राउन “एंटी-स्किड कंट्रोल” सिस्टम के साथ आने वाली पहली कार थी, लेकिन बीएमडब्ल्यू ने 1990 के दशक की शुरुआत में बॉश के साथ अपने ट्रैक्शन कंट्रोल सिस्टम में किया और 1992 में इसे अपनी पूरी मॉडल लाइन में इस्तेमाल किया। वहीं Mercedes ने साल 1995 से अपनी S-Class कूपे में ESC सिस्टम का इस्तेमाल करना शुरू किया। अब भारतीय बाजार में भी आने वाले वाहनों इस तकनीक का खूब प्रयोग हो रहा है।
2- डुअल-क्लच ट्रांसमिशन (DCT):
पहले ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन को “हॉर्सलेस कैरिज गियरबॉक्स” कहा जाता था, जो कि साल 1904 में दिखाई दिया था। लेकिन जनरल मोटर्स ने 1939 में पहला बड़े पैमाने पर ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन गियरबॉक्स को पेश किया। हालांकि ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन ड्राइविंग को आसान और आरामदेह बनाने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इनकी असली अवधारणा कम्फर्ट नहीं बल्कि फास्ट होना है। एक डुअल-क्लच ट्रांसमिशन (DCT) में एक क्लच सम-संख्या वाले गियर को संभालता है जबकि दूसरा बाकी को संभालता है।
डुअल-क्लच ट्रांसमिशन के सबूत द्वितीय विश्व युद्ध से पहले भी मिलते हैं, जो कि एक फ्रांसीसी सैन्य इंजीनियर द्वारा तैयार किया गया था। लेकिन इसे असल जीवन में इस्तेमाल में नहीं लाया गया। वहीं साल 1961 की ब्रिटिश हिलमैन मिनक्स डीसीटी के साथ आने वाली पहली कार थी, हालांकि यह पूरी तरह से ऑटोमेटिक की तुलना में सेमी-ऑटोमेटिक ज्यादा थी। खैर समय के साथ इस तकनीक ने एस वक्त ज्यादा गति पकड़ी जब जब पोर्श ने 1985 में अपनी 962 C कार में इसका प्रयोग करना शुरू किया। हालांकि, डीसीटी के साथ पहली आधुनिक कार के तौर पर Volkswagen Golf R32 को जाना जाता है।
3- कीलेस एंट्री (बिना चाबी के प्रवेश):
आज के समय में कीलेस एंट्री का चलन काफी बढ़ गया है, तकरीबन हर प्रीमियम कारों में इस फीचर को देखा जा सकता है। साल 1980 में, फोर्ड ने अपनी बिना चाबी वाले सिस्टम को पेश किया था जिसमें अनलॉक करने के लिए ड्राइवर के दरवाजे पर लगे पांच-बटन कीपैड में एक नंबर कोड दर्ज करना पड़ता था। हालांकि, फ्रांस की कंपनी रेनॉल्ट ने साल 1982 में अपनी कार Fuego में पहला रिमोट कीलेस सिस्टम का इस्तेमाल किया। फिर, जनरल मोटर्स ने 1990 के दशक की शुरुआत में इसे जनता के सामने लाया। अब हमें कई आधुनिक कार के दरवाजे खोलने के लिए अपनी जेब से चाबी निकालने की भी जरूरत नहीं पड़ती है, बल्कि एक ट्रांसपोंडर का इस्तेमाल किया जाता है, जब ये ट्रांसपोंडर कार के पास आता है तो सेंसर की मदद से कार का दरवाजा स्वयं ही खुल जाता है और जैसे ही ट्रांसमीटर एरिया से दूर होता है कार का दरवाजा फिर से लॉक हो जाता है। वहीं Tesla इससे भी कुछ कदम आगे बढ़ चुका है जिसने अपनी कार के लिए कार्ड की (कार्ड वाली चाबी) का इस्तेमाल किया है।
4- एयरोडायनमिक्स (वायुगतिकी):
दुनिया में जब कारों का निर्माण शुरू हुआ उसके बाद से ही इंजीनियरों ने समझा कि कारों का सबसे बड़ा प्रतिरोध हवा है। 1800 के दशक में लैंड स्पीड रेसर्स ने ऐसी कारों का निर्माण किया, जो ऐसी दिखती थीं जैसे वे नावों से प्रभावित हों, और 1914 में, अल्फा रोमियो ने पहले ऐसे वाहन को डिजाइन किया, लेकिन बॉडीवर्क के अतिरिक्त वजन ने बेस कार की गति में सुधार नहीं किया। 1921 से जर्मन रम्पलर “ट्रॉपफेनवेगन” (टियरड्रॉप कार) बनाई गई जो कि ज्यादा सफल रही।
इस दौरान कारों के डिज़ाइन में कई तरह के बदलाव किए गए जैसे कि “स्ट्रीमलाइनर” डिजाइन का इस्तेमाल ज्यादातर कारों में देखने को मिला, लेकिन यह बहुत आगे तक नहीं बढ़ा। इसके बाद ब्रिटिश शोधकर्ता जी.ई. लिंड-वाकर ने त्वरण, ब्रेकिंग और कॉर्नरिंग में डाउनफोर्स की भूमिका को समझाते हुए मोटर रेसिंग की दुनिया में एक नई क्रांति ला दी। रेसिंग कारों में अब विंग्स और स्पॉइलर दिखाई देने लगे, और एयरोडायनमिक्स और स्टाइल में रेस कारों के साथ ही सामान्य कारों में भी इनका इस्तेमाल शुरू हो गया। एयरोडायनमिक्स की अवधारणा ने केवल कारों को स्पीड दी बल्कि ऑटो उद्योग को भी नई गति देने में अहम भूमिका निभाई।
5)- सीटबेल्ट्स:
आज के समय में सीटबेल्ट्स के बीना कार की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ये कहना गलत नहीं होगा कि रफ़्तार वही अच्छी होती है, जिस पर लगाम हो। कारों का सीधा वास्ता स्पीड से है और ऐसे में किसी भी आपात स्थिति में सीटबेल्ट्स सुरक्षा में अहम भूमिका निभाते हैं। ये बात दशकों पहले ही समझ ली गई थी कि, ये फीचर कितना उपयोगी है। एक रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक के मध्य में किए गए अध्ययनों से पता चला था कि सीट बेल्ट ने कार दुर्घटनाओं में लगने वाले चोट और मृत्युदर को काफी हद तक कम किया है। इसके अलावा हाल ही में, सीटबेल्ट और एयरबैग के कॉम्बीनेशन के बारे में एक रिपोर्ट सामने आई, जिसमें बताया गया कि ये दोनों फीचर दुर्घटनाओं में मृत्यु दर को तकरीबन आधा कर देते हैं।
जब आप दुनिया के पहले सीटबेल्ट को खोजने के लिए निकलते हैं तो आपको 19वीं सदी के मध्य में वापस जाना पड़ता है। इसका आविष्कार अंग्रेज इंजीनियर जॉर्ज केली ने अपने ग्लाइडर के लिए किया था। हालांकि उस दौर में Nash नामक कंपनी जो कि अब बंद हो चुकी है, उसने सीटबेल्ट्स का इस्तेमाल अपनी कारों में किया तो ज्यादातर ग्राहकों ने डीलरशिप से सीटबेल्ट निकालने के लिए कहा, जिसके बाद नैश ने इस फीचर को फेल घोषित कर दिया। आगे चलकर साल 1955 में फोर्ड ने अपनी कारों में सीटबेल्ट्स को एक विकल्प के रूप में पेश किया, लेकिन केवल 2 प्रतिशत खरीदारों ने इस विकल्प को चुना।
थोड़ा और खंगालने पर हमें पता चलता है कि, दुनिया के पहले थ्री-प्वाइंट सीटबेल्ट का डिज़ाइन 1955 में रोजर डब्ल्यू. ग्रिसवॉल्ड और ह्यूग डेहेवन ने किया था। हालांकि, बाद में स्वीडन की कंपनी SAAB ने पहली बार सफलतापूर्वक सीटबेल्ट को बतौर स्टैंडर्ड फीचर अपनी कारों में इस्तेमाल करना शुरू किया। इसके कुछ सालों बाद साल 1958 में स्वीडिश आविष्कारक निल्स बोहलिन ने Volvo के लिए आधुनिक थ्री-प्वाइंट सीटबेल्ट को विकसित किया, जिसका इस्तेमाल आज की कारों में होता है।
6)- GPS नेविगेशन:
एक दौर था जब लोग अनजान सड़क पर रास्ता पूछते हुए चलते थें या फिर मानचित्रों/नक्शे का इस्तेमाल करते थें। लेकिन यह सब तब बदल गया जब जापानी कंपनी Mazda ने 1990 में केवल जापान के यूनोस कॉस्मो में अमेरिकी सेना के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) का उपयोग किया। इससे पहले, वाहन निर्माता कंपनियां मानचित्रों का उपयोग करने के लिए नए तरीके लेकर आए थें। जीपीएस नेविगेशन के लिए Toyota की CD-ROM नेविगेशन प्रणाली भी सामने आई, जो अपने मेमोरी में मानचित्रों को संग्रहीत करती थी और उन्हें रंगीन डिस्प्ले का उपयोग करके स्क्रीन पर दिखाया जाता था।
खैर, समय के साथ तकनीक इतना विकसित हुई की, तकरीबन हर हाथ में (स्मार्टफोन के तौर पर) एक GPS नेविगेशन सिस्टम मौजूद है। इसी तकनीक का इस्तेमाल वाहन निर्माता कंपनियों ने भी एक डिस्प्ले के जरिए कारों में किया, जिसे आप एप्पल कार प्ले, एंड्रॉयड ऑटो इत्यादि से कनेक्ट कर रास्ते को सुगम बनाया जा सकता है। निसंदेह जीपीएस नेविगेशन हर कार चालक के ड्राइविंग एक्सपेरिएंस को और भी बेहतर बना दिया है, और अब आपको हर गली-मोड पर रूक-रूक कर रास्ता पूछने की जरूरत नहीं होती है। बल्कि नेविगेशन सिस्टम की मधुर आवाज आपको रास्ता बताती रहती है।
7)- Disk ब्रेक्स:
कारों में तेज रफ़्तार के साथ संतुलित ब्रेकिंग का होना सबसे जरूरी होता है। आमतौर पर सस्ती और पुरानी कारों में ड्रम ब्रेक देखें जा सकते हैं, लेकिन आज के समय में आधुनिक कारों में Disk ब्रेक्स का चलन है। आसान भाषा में समझें तो, ड्रम ब्रेक में एक सिलेंडर होता है जो ब्रेक पैड को सिलेंडर के अंदर, बाहर की ओर दबाता है, जिसे ड्रम के रूप में जाना जाता है। वहीं Disk ब्रेक में एक Disk का उपयोग किया जाता हैं और ब्रेक पैड दोनों तरफ से क्लैंप करते हैं। ये दवाब ज्यादा स्मूथ और अनुपातिक होता है, जिससे ब्रेक को सुचारू रूप से लगाना आसान हो जाता है।
इसके अलावा Disk ब्रेक्स लंबे समय तक चलते हैं, विशेष रूप से भारी उपयोग के तहत, भीगने के बाद तेजी से ठीक हो जाते हैं, और आसानी से गर्म नहीं होते हैं। इतिहास की तरफ देखें तो Disk ब्रेक का पहला उदाहरण यूनाइटेड किंगडम में साल 1890 में देखने को मिलता है, लेकिन यह उतना प्रैक्टिकल नहीं था, क्योंकि इसे बनाने वाले फ्रेडरिक विलियम लैंचेस्टर ने इसमें तांबे की Disk का इस्तेमाल किया था। फिर उन्हें मोटरसाइकिलों के लिए विकसित किया गया लेकिन 1930 के दशक में इसका उपयोग ट्रेनों में लंबे समय किया गया।
साल 1950 के दौरान अमेरिकी कंपनी Chrysler ने एक नॉन-कैलिपर-टाइप Disk ब्रेक का इस्तेमाल अपने कुछ रेसिंग कार मॉडलों में किया। वहीं ब्रिटिश कंपनी जगुआर ने 1953 में 24 घंटे वाली ले मैन्स रेस में शामिल अपनी कार में डनलप Disk ब्रेक का इस्तेमाल किया। C-Type उस वक्त की पहली कार थी, जो 100 मील प्रतिघंटा की रफ़्तार से दौड़ती थी और संतुलित ब्रेकिंग भी प्रदान करती थी। बहरहाल, दुनिया की पहली Disk ब्रेक वाली मेनस्ट्रीम कार Citroen DS थी।