इटावा जिला मुख्यालय से 5 किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी के किनारे स्थित कालीवाह माता मंदिर देश-दुनिया में फेमस है। काली मां का यह मंदिर चंबल के खूंखार डाकुओं की आस्था का केंद्र भी रहा है। अपने मकसद में कामयाब होने के बाद डाकू इस मंदिर पर घंटे और झंड़े चढ़ाते थे। नवरात्र के मौके पर मां काली के इस मंदिर में दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ता है। जनश्रुति है कि इस मंदिर में आज भी अदृश्य रूप में अश्वश्थामा सबसे पहले पूजा करने आता है। मंदिर के मुख्य महंत राधेश्याम द्विवेदी का कहना है कि देर रात मंदिर धुलकर साफ किया जाता है, बावजूद अगले दिन सुबह गर्भगृह में ताजे फूल मिलते हैं। कहा जाता है महाभारत काल के अमर पात्र अश्वश्थामा मंदिर में अदृश्य रूप से पूजा करने के लिये आते हैं।
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क्या कहता है गजेटियर
इटावा के गजेटियर में कालीवाह मंदिर को काली भवन का नाम दिया गया है। यमुना के तट के निकट स्थित यह मंदिर देवी भक्तों का प्रमुख केन्द्र है। इष्टम अर्थात शैव क्षेत्र होने के कारण इटावा में शिव मंदिरों के साथ दुर्गा के मंदिर भी बड़ी सख्या में हैं। इस मंदिर में स्थित मूर्ति शिल्प 10वीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य का है। वर्तमान मंदिर का निर्माण बीसवीं शताब्दी की देन है। मंदिर में देवी की तीन मूर्तियां है- महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती।
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पौराणिक कथानकों के अनुसारमार्कण्डेय पुराण एवं अन्य पौराणिक कथानकों के अनुसार दुर्गा जी प्रारम्भ में काली थीं। एक बार वह भगवान शिव के साथ आलिगंनबद्ध थीं, तो शिवजी ने परिहास करते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि जैसे श्वेत चंदन वृक्ष में काली नागिन लिपटी हुई हो। पार्वती जी को क्रोध आ गया और उन्होंने तपस्या के द्वारा गौर वर्ण प्राप्त किया। महाभारत में उल्लेख है कि दुर्गाजी ने जब महिषासुर तथा शुम्भ-निशुम्भ का वध किया तो उन्हें काली, कराली, काल्यानी आदि नामों से भी पुकारा जाने लगा।
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श्रद्धा का केन्द्र है कालीवाह मंदिर
कालीवाहन मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि प्रातः काल जब भी मंदिर का गर्भगृह खोला जाता है, तो मूर्तियां पूजित मिलती हैं। कहा जाता है कि द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वमत्थामा अदृश्य रूप में आकर इन मूर्तियों की पूजा करता है। कालीवाह मंदिर श्रद्धा का केन्द्र है। नवरात्रि के दिनों में यहाँ बड़ी संख्या में श्रृद्धालु आते हैं।
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