श्री शिव सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Shiva Sahasranama Stotram)
।ध्यानम् ।
शान्तं पद्मासनस्थं शशिधरमकुटं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रं
शूलं वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षभागे वहन्तं ।
नागं पाशं च घण्टां प्रलयहुतवहं चाङ्कुशं वामभागे
नानालङ्कारयुक्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि ॥
श्लोक का अर्थ
“मैं शान्त स्थिति में बैठे पद्मासन परमेश्वर को, जिनके सिर पर चंद्रमा विराजमान हैं, पांच मुख और तीन नेत्रों वाले भगवान शिव को नमस्कार करता हूँ। उनके हाथ में त्रिशूल, वज्र, खड्ग और परशु हैं, जो भय को दूर करते हैं और दक्षिण ओर हैं। उनके बांयीं ओर साँप, पाश, घंटा, और प्रलय को लेकर चम्पक के फूल की तरह सुंदर आभूषणों से सजे हुए हैं, और उनके हाथ में आंकुश हैं। मैं पार्वतीपति शिव को नमस्कार करता हूँ।श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्र अर्थ सहित
यह श्लोक भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों और आभूषणों का वर्णन करता है। यह शिव की महिमा, शक्ति और विश्वनाथ के रूप में उनके दिव्य स्वरूप की प्रशंसा करता है। इस श्लोक का पाठ करने से शिव के भक्तों को शांति, सुरक्षा और आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होती है।सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः ॥ 1 ॥
इस श्लोक का अर्थ हिंदी में
ओं, वह स्थिर और अचल है, जो सभी स्थानों को प्रभुत्व प्रदान करता है, वह भयंकर है, वह प्रमुख है, वह वरदान देने वाला है, वह सबका संबोधक और प्रमाणित है, वह सबका कर्ता है, उसे अपना बनो। ॥ 1 ॥
श्री शिव अष्टोत्तर नाम स्तोत्रम हिंदी अर्थ
जटी चर्मी शिखण्डी च सर्वाङ्गः सर्वभावनः ।
हरश्च हरिणाक्षश्च सर्वभूतहरः प्रभुः ॥ 2 ॥ जटे बालों वाले, त्रिशूल धारी, सब शरीरों के आचरण को समझने वाले, सभी के मन के भावों को जानने वाले। हर, हरिणाक्ष, जो समस्त भूतों का नाश करने वाले, सर्वशक्तिमान प्रभु हैं॥ 2 ॥
श्मशानवासी भगवान् खचरो गोचरोऽर्दनः ॥ 3 ॥ वह प्रवृत्ति और निवृत्ति है, अनन्त, निश्चल, श्मशान में वास करने वाला, जीवों के लिए आश्रय और भोजन होने वाला, जिसका विख्यात नाम ‘खचर’ है, जो गोचर में आता है और बुराई को नष्ट करता है॥ 3 ॥
श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्र अर्थ सहित
अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूतभावनः ।उन्मत्तवेषप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः ॥ 4 ॥ वह आदरणीय है, महाकर्मा है, तपस्वी है, भूतों की भावना को धारण करने वाला है, मस्तिष्क से छिपे हुए है, सब लोकों के प्रजापति है॥ 4 ॥
महात्मा सर्वभूतात्मा विश्वरूपो महाहनुः ॥ 5 ॥ वह महान रूपधारी है, महाकाय है, वृषरूपी है, महायशस्वी है, महात्मा है, सब जीवों का आत्मा है, विश्वरूपी है और महान हनुमान है॥ 5 ॥
पवित्रं च महांश्चैव नियमो नियमाश्रितः ॥ 6 ॥ वह सब लोकों का पालक है, अंतर्हित आत्मा है, हयगर्दभि द्वारा आनंदित होता है, पवित्र है और महान भक्तों के आश्रय में है॥ 6 ॥
सहस्राक्षो विशालाक्षः सोमो नक्षत्रसाधकः ॥ 7 ॥ वह सर्व कर्म का स्वयंभूत है, सब कारणों का कारण है, अनंत आँखों वाला है, विशालाक्ष है, सोम है और नक्षत्रों के साधक है॥ 7॥
अत्रिरत्र्यानमस्कर्ता मृगबाणार्पणोऽनघः ॥ 8 ॥ चंद्रमा, सूर्य, शनि, केतु, ग्रह और ग्रहपति, अत्रि और अत्रि के आनंद का कर्ता, मृगबाण को समर्पित हुआ, पापरहित है॥ 8 ॥ महातपा घोरतपा अदीनो दीनसाधकः ।
संवत्सरकरो मन्त्रः प्रमाणं परमं तपः ॥ 9 ॥
सुवर्णरेताः सर्वज्ञः सुबीजो बीजवाहनः ॥ 10 ॥ योगी है, योग के योज्य है, महान बीजवान है, महान शुक्रतेजस्वी है, महाबलशाली है, सोने के बीजों वाले है, सर्वज्ञ है, सुबीजों का पालक है॥ 10 ॥
विश्वरूपः स्वयंश्रेष्ठो बलवीरोऽबलो गणः ॥ 11 ॥ वह दस हाथों वाला है, एक निमिष में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अधिपति है, विश्वरूपी है, स्वयंश्रेष्ठ है, बलवान है, तोड़ने वाला है॥ 11 ॥
मन्त्रवित्परमोमन्त्रः सर्वभावकरो हरः ॥ 12 ॥ गणकर्ता है, गणपति है, दिग्वासा है, काम का पूर्ण करने वाला है, मन्त्रज्ञ है, सर्व भावों को प्रदान करने वाला है, हर है॥ 12॥
अशनी शतघ्नी खड्गी पट्टिशी चायुधी महान् ॥ 13 ॥ कमण्डल धारी है, धनुष वाला है, बाणों के हाथी है, कपालधारी है, अशनी है, शत्रुओं को नष्ट करने वाली है, खड्गी है, पट्टी धारी है, महान है॥ 13 ॥
उष्णीषी च सुवक्त्रश्च उदग्रो विनतस्तथा ॥ 14 ॥ स्रुव धारी है, सुरूप है, तेजस्वी है, उष्णीष धारी है, सुंदर वक्त्र वाला है, उद्ग्रो है, नमस्कार करने वाला है॥ 14॥
सृगालरूपः सिद्धार्थो मुण्डः सर्वशुभङ्करः ॥ 15 ॥ लम्बे बाल वाला है, हरिकेश है, सुतीर्थ है, कृष्ण है, गिलहरी के रूप में है, सिद्धार्थ है, मुण्ड है, सब शुभ फल देने वाला है॥ 15॥
श्री शिव अष्टोत्तर नाम स्तोत्रम हिंदी अर्थ
अजश्च बहुरूपश्च गन्धधारी कपर्द्यपि ।ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभस्स्थलः ॥ 16 ॥ वह अजर और बहुरूपवान है, गन्धधारी और कपर्द धारण करने वाला है, ऊर्ध्वरेता है, ऊर्ध्वलिङ्ग है, ऊर्ध्वशायी है और नभ में स्थित है॥ 16 ॥
अहश्चरो नक्तञ्चरस्तिग्ममन्युः सुवर्चसः ॥ 17 ॥ वह त्रिजटी है, चीरवासी है, रुद्र है, सेनापति है, विभु है, अहश्चर है, नक्तञ्चर है, तीव्र मन्यु है, सुवर्चस है॥ 17 ॥ गजहा दैत्यहा कालो लोकधाता गुणाकरः ।
सिंहशार्दूलरूपश्च आर्द्रचर्माम्बरावृतः ॥ 18 ॥
निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः ॥ 19 ॥ वह कालयोगी है, महानाद है, सर्वकामा है, चतुष्पथ का ज्ञानी है, निशाचर है, प्रेतचारी है, भूतचारी है, महेश्वर है॥ 19 ॥
नृत्यप्रियो नित्यनर्तो नर्तकः सर्वलालसः ॥ 20 ॥ वह बहुभूत है, बहुधर है, स्वर्भानु है, अमित गति है, नृत्यप्रिय है, नित्यनर्त है, नर्तक है, सर्वलालस है॥ 20 ॥ घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरिरुहो नभः ।
सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यतन्द्रितः ॥ 21 ॥
दक्षयागापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा ॥ 22 ॥
गम्भीरघोषो गम्भीरो गम्भीरबलवाहनः ॥ 23 ॥
सुतीक्ष्णदशनश्चैव महाकायो महाननः ॥ 24 ॥ वह न्यग्रोधरूप है, न्यग्रोध है, वृक्षकर्ण में स्थित है, विभु है, सुतीक्ष्णदशन है, महाकाय है, महानन है॥ 24 ॥
तीक्ष्णतापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवित् ॥ 25 ॥ वह विष्वक्सेन है, हरि है, यज्ञ है, सम्युगापीडवाहन है, तीक्ष्णताप है, हर्यश्व है, कर्मकाल का सहायक है॥ 25 ॥ विष्णुप्रसादितो यज्ञः समुद्रो बडबामुखः ।
हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः ॥ 26 ॥
ज्योतिषामयनं सिद्धिः सर्वविग्रह एव च ॥ 27 ॥
वेणवी पणवी ताली खली कालकटङ्कटः ॥ 28 ॥
प्रजापतिर्विश्वबाहुर्विभागः सर्वगोमुखः ॥ 29 ॥
मेघजो बलचारी च महीचारी स्रुतस्तथा ॥ 30 ॥ वह विमोचन है, सुसरण है, हिरण्यकवचोद्भव है, मेघज है, बलचारी है, महीचारी है, स्रुत है, तथा ही सभी गुणों का स्वामी है॥ 30 ॥
व्यालरूपो गुहावासी गुहो माली तरङ्गवित् ॥ 31 ॥
अर्थ (हिंदी में):
वह सब ओर सूर्य के शब्द करने वाला है, सब ओर फैलने वाला है। वह नाग की आकार में है, गुहा में वास करने वाला है, गुहा को पालक है, जल की लहरों को जानने वाला है॥ 31 ॥
बन्धनस्त्वसुरेन्द्राणां युधिशत्रुविनाशनः ॥ 32 ॥
अर्थ (हिंदी में):
वह त्रिदेवों के समयों के कर्मों को धारण करने वाला है, सभी बंधनों का मोचन करने वाला है। वह असुरराजों के बंधन करने वाला है, युद्ध के शत्रुओं का नाश करने वाला है॥ 32 ॥
प्रस्कन्दनो विभागज्ञो अतुल्यो यज्ञभागवित् ॥ 33 ॥
अर्थ (हिंदी में)
वह सांख्ययोग के आशीर्वाद से प्राप्त होने वाला है, दुर्वासा ऋषि का प्रसाद प्राप्त है, सभी साधुओं की सेवा में है। वह विभाजन करने वाला है, विभाजन का ज्ञान रखने वाला है, अतुल्य है, यज्ञों का भागी है॥ 33 ॥
हैमो हेमकरो यज्ञः सर्वधारी धरोत्तमः ॥ 34 ॥
अर्थ (हिंदी में)
वह सब जगह वास करने वाला है, सब परिचार करने वाला है, दुर्वासा ऋषि है, इन्द्र का वासी है, अमर है। वह हीरे का उद्भव है, हीरे को देने वाला है, यज्ञ है, सब के धारक है, उत्तम धारण करने वाला है॥ 34 ॥
सङ्ग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः ॥ 35 ॥ वह लाल आंखों वाला है, महाकाय है, विजयाक्ष है, विशारद है। वह संग्रहण करने वाला है, निग्रहण करने वाला है, कर्म करने वाला है, सर्प की चादर में निवास करने वाला है॥ 35 ॥
सर्वकालप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृक् ॥ 36 ॥
अर्थ (हिंदी में)
वह प्रमुख और अप्रमुख है, देह है, काहलि है, सभी कामनाओं को पूरा करने वाला है। वह सभी कालों का प्रसाद है, शक्तिशाली है, बल की आकृति धारण करने वाला है॥ 36 ॥
आकाशनिर्विरूपश्च निपाती ह्यवशः खगः ॥ 37 ॥
अर्थ (हिंदी में)
वह सभी कामनाओं का वरदान करने वाला है, सब समय में है, सब ओर मुख है। वह आकाश की अद्वितीयता है, अवश्य ही गिरने वाला पक्षी है॥ 37 ॥
वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः ॥ 38 ॥
अर्थ (हिंदी में)
वह रुद्ररूप सूर्य है, बहुत सारे किरणों वाला है, अत्युज्ज्वल है। वह वसु के गति से बहुत तेज है, महान गति है, मन की गति है, रात्रिभोजी निशाचर है॥ 38 ॥
मुनिरात्मनिरालोकः सम्भग्नश्च सहस्रदः ॥ 39 ॥ वह सबके आवासी हैं, श्रीवास हैं, उपदेश देने वाले हैं, अकर हैं। वे मुनि हैं, आत्मा में स्थित हैं, निरालोक हैं, सहस्रों रूपों में सम्पूर्ण हैं।”
उन्मादो मदनः कामो ह्यश्वत्थोऽर्थकरो यशः ॥ 40 ॥ वह पक्षी है और पक्षरूपी भी हैं, वह अत्यंत तेजस्वी हैं, विशाम्पति हैं। वह उन्माद है, मदन है, काम है, वह अश्वत्थ वृक्ष हैं, वह यश को प्रदान करने वाले हैं।”
सिद्धयोगी महर्षिश्च सिद्धार्थः सिद्धसाधकः ॥ 41 ॥ “वह वामदेव हैं और वाम भी हैं, उनका दिशा के सामने और दक्षिणे में होना भी हैं, वामन भी हैं। वे सिद्धयोगी हैं, महर्षि हैं, सिद्धार्थ हैं, सिद्धि को प्राप्त करने वाले हैं।”
महासेनो विशाखश्च षष्ठिभागो गवाम्पतिः ॥ 42 ॥ “वह भिक्षु हैं और भिक्षुरूपी भी हैं, वह विपणी (व्यापारी) हैं, मृदु (कोमल) हैं, अव्यय हैं। वह महासेना हैं, विशाखा नक्षत्र हैं, गोपालों का छठवां भाग (अंश) हैं।”
वृत्तावृत्तकरस्तालो मधुर्मधुकलोचनः ॥ 43 ॥ वह वज्रायुध धारी हैं, विष्कम्भी और चमूस्तम्भन भी हैं। उनके हाथों में वज्र हैं, वे अविचलित और स्थिर हैं, वे काम-रस में प्रवृत्त हैं, और उनकी आंखें मधुर और मधु की तरह शोभा प्रदान करती हैं।”
ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी विचारवित् ॥ 44 ॥ “वे वाचस्पति हैं, वाजसनी धारण करने वाले हैं, वे नित्याश्रम (अश्रम जीवन) में पूजित होते हैं। वे ब्रह्मचारी हैं, लोक में चरने वाले हैं, सभी चारित्रिक नियमों को पालन करते हैं, और विचारशील भी हैं।”
निमित्तस्थो निमित्तं च नन्दिर्नन्दिकरो हरिः ॥ 45 ॥ “वे ईशान हैं, ईश्वर हैं, काल हैं, निशाचारी (रात्रि को चरने वाले) हैं, पिनाकधारी हैं। वे निमित्त में स्थित हैं, निमित्त को प्रदान करते हैं, वे नंदी और नन्दिकर्ता हैं, हरि हैं।”
भगहारी निहन्ता च कालो ब्रह्मपितामहः ॥ 46 ॥ वह नन्दीश्वर हैं और नन्दी भी हैं, वह नन्दन हैं और नन्दिवर्धन भी हैं। वह भगहारी हैं, निहत्ता हैं, काल हैं, ब्रह्मा और पितामह हैं।”
लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो योगाध्यक्षो युगावहः ॥ 47 ॥ वह चतुर्मुख हैं, महालिङ्ग हैं, आरुलिङ्ग हैं और वही लिङ्गाध्यक्ष हैं। वह सुराध्यक्ष हैं, योगाध्यक्ष हैं, युगावाहक हैं।” बीजाध्यक्षो बीजकर्ता अध्यात्माऽनुगतो बलः ।
इतिहासः सकल्पश्च गौतमोऽथ निशाकरः ॥ 48 ॥
लोककर्ता पशुपतिर्महाकर्ता ह्यनौषधः ॥ 49 ॥
नीतिर्ह्यनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो गतागतः ॥ 50 ॥
वेदकारो मन्त्रकारो विद्वान् समरमर्दनः ॥ 51 ॥
अग्निज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हविः ॥ 52 ॥
नीलस्तथाऽङ्गलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः ॥ 53 ॥
उत्सङ्गश्च महाङ्गश्च महागर्भपरायणः ॥ 54 ॥
महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः ॥ 55 ॥
महान्तको महाकर्णो महोष्ठश्च महाहनुः ॥ 56 ॥ “वह महामूर्धा हैं, महामात्रा हैं, महानेत्र हैं, निशालय हैं। वह महान्तक हैं, महाकर्ण हैं, महोष्ठ हैं, महाहनु हैं।”
महावक्षा महोरस्को ह्यन्तरात्मा मृगालयः ॥ 57 ॥ “वह महानास हैं, महाकम्बु हैं, महाग्रीव हैं, श्मशान में निवास करने वाला हैं। वह महावक्षा हैं, महोरस्क हैं, अन्तरात्मा हैं, मृगालय हैं।” लम्बनो लम्बितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः ।
महादन्तो महादम्ष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः ॥ 58 ॥
प्रसन्नश्च प्रसादश्च प्रत्ययो गिरिसाधनः ॥ 59 ॥ “वह महानख हैं, महारोमा हैं, महाकोश हैं, महाजट हैं। वह प्रसन्न हैं, प्रसाद हैं, प्रत्यय हैं, गिरिसाधन हैं।”
वृक्षाकारो वृक्षकेतुरनलो वायुवाहनः ॥ 60 ॥ “वह स्नेहन हैं, अस्नेहन हैं, अजित हैं, महामुनि हैं। वह वृक्षाकार हैं, वृक्षकेतु हैं, अनल हैं, वायुवाहन हैं॥” गण्डली मेरुधामा च देवाधिपतिरेव च ।
अथर्वशीर्षः सामास्य ऋक्सहस्रामितेक्षणः ॥ 61 ॥
अमोघार्थः प्रसादश्च अभिगम्यः सुदर्शनः ॥ 62 ॥
नाभिर्नन्दिकरो भावः पुष्करः स्थपतिः स्थिरः ॥ 63 ॥
नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः ॥ 64 ॥
भस्मशयो भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तरुर्गणः ॥ 65 ॥ “वे सहगण हैं, गणकार हैं, भूतों को वाहन में बैठाने वाले हैं। वे भस्मशय हैं, भस्म रक्षक हैं, भस्म का संचय करने वाले हैं, वृक्षों की गणना हैं॥”
शुक्लस्त्रिशुक्लः सम्पन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः ॥ 66 ॥ लोकपाल हैं, तथा अलोक हैं, महात्मा हैं और सभी द्वारा पूज्य हैं। वे शुक्ल रंग के हैं, त्रिशुक्ल (त्रिमासी संख्या) में पूर्णता प्राप्त हैं, शुचि हैं, भूतों द्वारा सेवित हैं॥”
विशालशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यम्बुजालः सुनिश्चलः ॥ 67 ॥ “वे आश्रम में स्थित हैं, क्रियावस्था में हैं, विश्वकर्मा की मानसिकता हैं, वे विशाल शाखाएं रखने वाले हैं, ताम्रोष्ठ (ताम्रकृष्ण होंठ) हैं, जलमय उद्धारण पर निश्चल हैं॥”
गन्धर्वो ह्यदितिस्तार्क्ष्यः सुविज्ञेयः सुशारदः ॥ 68 ॥ “वे कपिल हैं, कपि हैं, शुक्ल रंग हैं, परों के आयु हैं। वे गन्धर्व हैं, अदिति के पुत्र हैं, तार्क्ष्य (गरुड़) हैं, जिन्हें समझना चाहिए, वे सुशारद (सुखद) हैं॥”
तुम्बवीणो महाक्रोध ऊर्ध्वरेता जलेशयः ॥ 69 ॥ “वे परश्वधारी देवता हैं, वे अनुकारी हैं, सुबान्धु हैं। वे तुंबवीणा वादक हैं, महाक्रोध (विष्णु) हैं, ऊर्ध्वरेता (ब्रह्मा) हैं, जल के स्वामी हैं॥”
सर्वाङ्गरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलोऽनलः ॥ 70 ॥ “वे उग्र हैं, वंशकारी हैं, वंश हैं, वंशनाद (वंशी ध्वनि) हैं, जिन्हें निंदा नहीं की जा सकती। वे सभी अंगों के स्वरूप हैं, मायावी हैं, मित्र हैं, अनिल देवता हैं॥”
सयज्ञारिः सकामारिर्महादम्ष्ट्रो महायुधः ॥ 71 ॥ वे बन्धन करने वाले हैं, बंधकार्ता हैं और सुबंधन का मुक्ति देने वाले हैं। वे सहयज्ञ (यज्ञ सहित) हैं, कामना के साथ करने वाले हैं, महादंड (महान युद्ध) हैं॥”
अमरेशो महादेवो विश्वदेवः सुरारिहा ॥ 72 ॥ “वे बहुतों द्वारा निंदित हैं, शर्व (रुद्र) हैं, शङ्कर हैं, धनहीन हैं। वे अमरेश (देवों के राजा) हैं, महादेव (महादेवता) हैं, विश्वदेव (सम्पूर्ण देवताओं का भगवान्) हैं, सुरारिहा (दैत्यों का वध करने वाले) हैं॥”
अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः ॥ 73 ॥ “वे अहिर्बुध्न्य (सर्प नाग) हैं, अनिलाभ (वायु के द्वारा प्राप्ति) हैं, चेकितान (यमराज) हैं, हरि (विष्णु) हैं। वे अजा (अजन्य, जन्मरहित) हैं, कपाली (कपालधारी शिव) हैं, त्रिशङ्कु (अग्नि) को पराजित करने वाले हैं, शिव हैं॥”
धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः ॥ 74 ॥ “वे धन्वन्तरि (आयुर्वेद के पिता) हैं, धूमकेतु (काल तारा, ग्रह) हैं, स्कन्द (कार्तिकेय) हैं, वैश्रवण (कुबेर) भी हैं। वे धाता (सृष्टिकर्ता), शक्र (इंद्र), विष्णु, मित्र, त्वष्टा, ध्रुव (पोलार सितारा) और धर (धरणी) हैं॥”
उषङ्गुश्च विधाता च मान्धाता भूतभावनः ॥ 75 ॥ वे प्रभाव (महत्त्व) हैं, सर्वग (सर्वव्यापी) हैं, वायु हैं, अर्यमा (अग्नि) हैं, सविता (सूर्य) हैं, रवि (सूर्य) हैं। वे उषङ्गु (अग्नि), विधाता (सर्वव्यापी), मान्धाता (विधाता) और भूतभावन (समस्त प्राणियों के पालक) हैं॥”
पद्मनाभो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रोऽनिलोऽनलः ॥ 76 ॥ “वे सर्वव्यापी हैं, वर्णों को विभाजित करने वाले हैं, सभी कामनाओं के गुणों को धारण करने वाले हैं। वे पद्मनाभ (विष्णु) हैं, महागर्भ (ब्रह्मा) हैं, चन्द्रवक्त्र (चंद्रमा के धारक) हैं, अनिल (वायु) हैं, अनल (अग्नि) हैं॥”
कुरुकर्ता कुरुवासी कुरुभूतो गुणौषधः ॥ 77 ॥ “वे बलवान हैं, शान्त हैं, पुराण हैं, पुण्यचंचूरी (पुण्यमयी चंचलता वाले) हैं। वे कुरुकर्ता (कृष्ण) हैं, कुरुवासी (कुरु राज्य में निवास करने वाले) हैं, कुरुभूत (कुरु वंश के पिता) हैं, गुणौषधि (गुणों का औषधि) हैं॥”
देवदेवः सुखासक्तः सदसत्सर्वरत्नवित् ॥ 78 ॥ “वे सभी शरीरों के परिपूर्ण करने वाले हैं, दर्भाचारी (दर्भा का पालन करने वाले) हैं, सभी प्राणियों के पति हैं। वे देवदेव (देवताओं के राजा) हैं, सुख में आसक्त हैं, सत्यसंध और सर्वरत्नों को जानने वाले हैं॥”
कूलहारी कूलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः ॥ 79 ॥ “वे कैलास पर निवास करने वाले हैं, हिमालय पर आश्रय लेने वाले हैं। वे कूलहारी (मुकुटधारी) हैं, कुल कारणकर्ता हैं, बहुविद्या वाले हैं, बहुदेवता दान करने वाले हैं॥”
सारग्रीवो महाजत्रुरलोलश्च महौषधः ॥ 80 ॥ “वे वणिजा हैं, वृक्ष हैं, वकुल (वकुल वृक्ष) हैं, चन्दनछद (सुगंधित रूप में विश्राम करने वाले) हैं। वे सारग्रीव (हठी वानर) हैं, महाजात्रु (बड़े शत्रु) हैं, लोल (लुभावने वाले) हैं, महाऔषधि (बड़ी चिकित्साओं को जानने वाले) हैं॥”
सिंहनादः सिंहदम्ष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः ॥ 81 ॥ वे सिद्धार्थकारी (सिद्धि को प्राप्त करने वाले) हैं, सिद्धार्थ (सिद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने वाले) हैं, छन्दोव्याकरण (छंद और व्याकरण) के उत्तमज्ञ हैं। वे सिंहनाद (सिंह की गर्जना) हैं, सिंहदम्ष्ट्र (सिंह के दंतों वाले) हैं, सिंहग (सिंह के समान होने वाले) हैं, सिंहवाहन (सिंह पर सवार) हैं॥”
सारङ्गो नवचक्राङ्गः केतुमाली सभावनः ॥ 82 ॥ “वे प्रभावों का स्वरूप हैं, जगत् के समय और स्थान हैं, लोकहित (लोगों के हित करने वाले) हैं, तरु (वृक्ष) हैं। वे सारङ्ग (कृष्ण) हैं, नवचक्राङ्ग (नव चक्र वाले) हैं, केतुमाली (केतुकों के माला धारण करने वाले) हैं, सभावन (सभा में निवास करने वाले) हैं॥”
अमोघः सम्यतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः ॥ 84 ॥
गोपालिर्गोपतिर्ग्रामो गोचर्मवसनो हरिः ॥ 85 ॥ “वे धृतिमान हैं, मतिमान हैं, दक्ष (प्रवीण) हैं, सत्कृत (पूजित) हैं, युगाधिप (युगों के राजा) हैं। वे गोपालि (कृष्ण) हैं, गोपति (गोविंद का स्वामी) हैं, ग्राम (ग्राम-वासियों का संचालक) हैं, गोचर्म (गो के चमड़े से बनी वस्त्र) के धारक हैं॥”
प्रकृष्टारिर्महाहर्षो जितकामो जितेन्द्रियः ॥ 86 ॥ “वे हिरण्यबाहु हैं और गुहापाल हैं, प्रवेशिनों के प्रमुख हैं। वे महाहर्ष (अत्यंत प्रमोद) के साथ युक्त हैं, सर्वाभीष्ट को प्राप्त करने वाले हैं और इन्द्रियों को जीत लिया है॥”
महागीतो महानृत्यो ह्यप्सरोगणसेवितः ॥ 87 ॥ “वे गान्धार (मधुर वाणी वाले) हैं और सुवास (मधुर गंध वाले) हैं। वे तपस्सक्त (तपस्या में लगे) हैं और रति (प्रेम) में रमते हैं। वे महागीत (महान संगीत) करते हैं, महानृत्य (महान नृत्य) करते हैं और अप्सरा गण की सेवा में हैं॥”
आवेदनीय आदेशः सर्वगन्धसुखावहः ॥ 88 ॥ “वे महाकेतु (महान ध्वज) हैं, महाधातु (विशाल धातु) हैं और नैकसानुचर (अनेक समर्थक) हैं। वे चलनेवाले हैं और सभी गन्धों को लाने वाले हैं॥” तोरणस्तारणो वातः परिधीपतिखेचरः ।
सम्योगो वर्धनो वृद्धो ह्यतिवृद्धो गुणाधिकः ॥ 89 ॥
युक्तश्च युक्तबाहुश्च देवो दिवि सुपर्वणः ॥ 90 ॥ वे नित्यात्मा (शाश्वत आत्मा) हैं और सहाय (सहायक) हैं, देवासुरपति (देवता और असुरों के प्रमुख) हैं और पति (प्रमुख) हैं। वे युक्त (संयुक्त) हैं और युक्तबाहु (संयुक्त बाहुओं वाले) हैं, दिव्य विमानों में स्थित देवता हैं॥”
वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः ॥ 91 ॥ वे आषाढ (आषाढ मास) हैं और सुषाढ (सुषाढ मास) हैं, ध्रुव (अचल) हैं और हरि (विष्णु) हैं। उनकी शरीररेखा से ऊपर (अवर्तन) होने वाले वे वसुश्रेष्ठ (उत्कृष्ट वसु) हैं और महापथ (महान मार्ग) हैं॥”
अक्षश्च रथयोगी च सर्वयोगी महाबलः ॥ 92 ॥ “वे शिरोहारी (मुकुटधारी) हैं और विमर्श (मनन) करने वाले हैं, सभी लक्षणों (गुणों) से युक्त हैं। वे अक्ष (चक्षु) हैं, रथयोगी (रथ में सवार) हैं और सम्पूर्ण योगों के ज्ञाता हैं, महान बलशाली हैं॥”
निर्जीवो जीवनो मन्त्रः शुभाक्षो बहुकर्कशः ॥ 93 ॥ “वे समाम्नाय (वेदों का संग्रह) हैं और असमाम्नाय (वेदान्त) हैं, तीर्थों के देवता हैं और महारथी हैं। वे जीवित (अजर-अमर) हैं और जीवन-मंत्र हैं, शुभाक्ष (शुभ की क्षय) हैं और बहुत कठोर हैं॥”
मूलं विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपोनिधिः ॥ 94 ॥ “वे रत्नों से युक्त हैं, रक्ताङ्ग (लाल अंग) हैं, महासागर के पान करने वाले हैं। वे विशाल (बड़े) हैं, अमृत स्वरूप हैं, व्यक्त-अव्यक्त (सचेत-असचेत) हैं और तपस्या का संग्रहक (धन) हैं॥”
सेनाकल्पो महाकल्पो योगो योगकरो हरिः ॥ 95 ॥ वे आरोहण (उठाना) करने वाले हैं और अधिरोहण (अवरोहण) करने वाले हैं, शीलधारी (आचारधारी) हैं और महायशास्वी हैं। वे सेनाओं का कल्प (समर-सेना) हैं, महाकल्प (ब्रह्म का कल्प) हैं, योग को प्राप्त करने वाले हैं और योग का प्रकारक हैं, हरि (विष्णु) हैं॥”
न्यायनिर्वपणः पादः पण्डितो ह्यचलोपमः ॥ 96 ॥ “वे युगरूप (युगों का रूप धारण करने वाले) हैं, महारूप (विशाल रूपधारी) हैं, महानाग को वध (मारने) करने वाले हैं। वे न्याय के पाद (मार्ग) हैं, पण्डित (ज्ञानी) हैं और अचल (अचंभित) के समान हैं॥”
विस्तारो लवणः कूपस्त्रियुगः सफलोदयः ॥ 97 ॥ वे बहुमाल (बहुत गले में हार) हैं, महामाल (विशाल माला) हैं, शशी (चंद्रमा) हैं, हरसुलोचन (हर के समान आंखों वाले) हैं। वे विस्तार (विस्तृतता) हैं, लवण (सागर) हैं, कूप (कुआँ) हैं, त्रियुग (तीन युगों का संयोजन) हैं, सफलोदय (समृद्धि का आगमन) हैं॥”
बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः ॥ 98 ॥ “वे त्रिलोचन (तीन आंखों वाले) हैं, विषण्णाङ्ग (दुःखी शरीर वाले) हैं, मणिविद्ध (मणि से विभूषित) हैं, जटाधारी (जटाओं वाले) हैं। वे बिंदु (बिंदु) हैं, विसर्ग (छोड़) हैं, सुमुख (सुंदर चेहरा) हैं, शर (तीर) हैं, सर्व आयुध (सभी आयुधों का सामरिक) हैं, सहन करने वाले हैं॥”
गन्धपाली च भगवानुत्थानः सर्वकर्मणाम् ॥ 99 ॥ “वे निवेदन (समर्पण) हैं, सुख से जन्मे हुए हैं, सुगंधा (महक) हैं, महाधनु (महान धनुष) हैं। वे गन्धपाली (महापूजा करने वाले) हैं, भगवान के उत्थान (उठाने) हैं, सभी कर्मों के आदिष्ठान (आधार) हैं॥”
तलस्तालः करस्थाली ऊर्ध्वसंहननो महान् ॥ 100 ॥ वे मन्थान (हलचल) हैं, बहुल (बहुत) हैं, वायु (हवा) हैं, सबका दर्शन करने वाले हैं। वे तल (ताल) हैं, स्थल (भूमि) हैं, कर में स्थित हैं, ऊर्ध्वसंहनन (ऊपर की ओर धावने वाले) हैं, महान् (विशाल) हैं॥”
मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डी कुण्डी विकुर्वणः ॥ 101 ॥ छत्रं (छत्र) सुछत्रः (अत्यंत सुंदर छत्र) है, विख्यातः (प्रसिद्ध) है, लोकः (लोग) सर्वाश्रयः (सबका आश्रय) है, क्रमः (क्रम)॥ 101 ॥ मुण्डः (मूंड) विरूपः (विचित्र रूपवाले) है, विकृतः (विकृति में) दण्डी (दंड धारण करने वाले) कुण्डी (कुंडल धारण करने वाले) विकुर्वणः (विभिन्न रूपों में परिवर्तित)॥ 101 ॥
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः ॥ 102 ॥ सहस्रमूर्धा (हजार सिर धारण करने वाले) देवेन्द्रः (देवों का अधिपति) सर्वदेवमयो (सभी देवताओं से युक्त) गुरुः (गुरु, आदरणीय)॥ 102 ॥ सहस्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृत् ।
पवित्रं त्रिककुन्मन्त्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः ॥ 103 ॥
पद्मगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः ॥ 104 ॥ रह्मदण्डविनिर्माता (दण्ड का निर्माता) शतघ्नी (शत्रुओं को नष्ट करने वाली) पाशशक्तिमान् (पाश शक्तियों वाला) ॥ 104 ॥पद्मगर्भो (पद्म की गर्भधारण करने वाला) महागर्भो (महागर्भ धारण करने वाला) ब्रह्मगर्भो (ब्रह्मा की गर्भधारण करने वाला) जलोद्भवः (जल से उत्पन्न होने वाला) ॥ 104 ॥
अनन्तरूपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयम्भुवः ॥ 105 ॥ “गभस्तिर्ब्रह्मकृत् (ब्रह्म के सृष्टि करने वाला), ब्रह्मी (ब्रह्मा की पत्नी), ब्रह्मविद् (ब्रह्म को जानने वाला), ब्राह्मणो गतिः (ब्राह्मणों की गति)। अनन्तरूपो (अनंत रूप वाला), नैकात्मा (एक आत्मा वाला), तिग्मतेजाः (तीक्ष्ण तेज वाला), स्वयम्भुवः (स्वयंभू ब्रह्मा)॥”
चन्दनी पद्मनालाग्रः सुरभ्युत्तरणो नरः ॥ 106 ॥ “ऊर्ध्वगात्मा (ऊर्ध्वगामी), पशुपतिः (पशुपति शिव), वातरंहा (वायु द्वारा उड़ाने वाला), मनोजवः (मन की गति वाला)। चन्दनी (चन्दनी वनमाला धारण करने वाला), पद्मनालाग्रः (पद्मनाभी), सुरभ्युत्तरणो (सुरभि से उठाने वाला) नरः (मनुष्य)॥”
उमापतिरुमाकान्तो जाह्नवीभृदुमाधवः ॥ 107 ॥ कर्णिकारमहास्रग्वी (कर्णिकार महामाला धारण करने वाला), नीलमौलिः (नीलकंठी शिव), पिनाकधृत् (पिनाक धारी), उमापतिः (उमापति शिव), उमाकान्तः (उमा का पति), जाह्नवीभृत् (जह्नवी धारी शिव), उमाधवः (उमा के पति )॥”
महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिङ्गलः ॥ 108 ॥ “वरः (श्रेष्ठ), वराहः (वराह अवतार), वरदः (वरदानकर्ता), वरेण्यः (वन्दनीय), सुमहास्वनः (सुमहान वाहन वाला), महाप्रसादः (महान प्रसाद), दमनः (शत्रुओं को निग्रह करने वाला), शत्रुहा (शत्रु नाशक), श्वेतपिङ्गलः (श्वेत-पिंगल रूप वाला)॥”
सर्वपार्श्वमुखस्त्र्यक्षो धर्मसाधारणो वरः ॥ 109 ॥ प्रीतात्मा (प्रेमशील आत्मा) हैं, परमात्मा (सर्वोच्च आत्मा) हैं, प्रयतात्मा (प्रयासशील आत्मा) हैं, प्रधानधृत् (प्रमुख धारक) हैं। वे सर्व पार्श्व (सभी दिशाओं) में मुखवाले हैं, त्रियक्ष (तीनों आंखों वाले) हैं, धर्म के साधारण (धर्म के साधनों के आदान-प्रदान में निपुण) हैं, वर (श्रेष्ठ) हैं॥”
साध्यर्षिर्वसुरादित्यः विवस्वान्सविताऽमृतः ॥ 110 ॥ “चरात्मा (सबका आत्मा) हैं, सूक्ष्मात्मा (सूक्ष्म आत्मा) हैं, अमृतो (अमर, अविनाशी) हैं, गोवृषेश्वरः (गौवंश के स्वामी) हैं। साध्यर्षि (साध्यों का ऋषि) हैं, वसु (देवताओं में एक प्रकार के वसु नामक गण) हैं, अदित्य (सूर्य देवता) हैं, विवस्वान् (सूर्य) हैं, सविता (सूर्य देवता) हैं, अमृत (अमर, अविनाशी) हैं॥”
ऋतुः संवत्सरो मासः पक्षः सङ्ख्यासमापनः ॥ 111 ॥ व्यास (वेदव्यास) हैं, सर्ग (सृष्टि) हैं, सुसङ्क्षेप (संक्षेप में विवरण) हैं, विस्तार (विस्तार में विवरण) हैं, पर्यय (परिवर्तन) हैं, नर (मनुष्य) हैं। ऋतु (मौसम) हैं, संवत्सर (वर्ष) हैं, मास (माह) हैं, पक्ष (पक्ष) हैं, सङ्ख्या (गणना) हैं, समापन (समाप्ति) हैं॥
विश्वक्षेत्रं प्रजाबीजं लिङ्गमाद्यस्सुनिर्गमः ॥ 112 ॥ कला (कला), काष्ठा (तूखड़ा), लवा (लव), मात्रा (मात्रा), मुहूर्ता (मुहूर्त), क्षपा (पल), क्षणा (क्षण) हैं। विश्वक्षेत्र (विश्व जगत) हैं, प्रजाबीज (प्रजा के बीज) हैं, लिङ्ग (लिंग) हैं, आद्य (आदि) हैं, सुनिर्गम (उद्भव) हैं॥
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ॥ 113 ॥ सद्-असद् (असत् और सत्), व्यक्त (प्रकट) हैं, अव्यक्त (अप्रकट) हैं, पिता (पिता) हैं, माता (माता) हैं, पितामह (पितामह) हैं। स्वर्गद्वार (स्वर्ग के द्वार) हैं, प्रजाद्वार (प्रजा के द्वार) हैं, मोक्षद्वार (मोक्ष के द्वार) हैं, त्रिविष्टप (तीर्थस्थान) हैं॥
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः ॥ 114 ॥ निर्वाण (मोक्ष) हैं, ह्लादन (आनंद) हैं, ब्रह्मलोक (ब्रह्मलोक) हैं, परागति (परम गति) हैं। देवासुरविनिर्माता (देवता और असुरों के निर्माता) हैं, देवासुरपरायण (देवता और असुरों में रमनेवाले) हैं॥
देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः ॥ 115 ॥ देवासुरगुरु (देवता और असुरों के गुरु) हैं, देवासुरनमस्कृत (देवता और असुरों द्वारा पूज्य) हैं। देवासुरमहामात्र (देवता और असुरों का महामात्रा), देवासुरगणाश्रय (देवता और असुरों का आश्रय) हैं॥”
देवादिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः ॥ 116 ॥ देवासुरगणाध्यक्ष (देवता और असुरों के नेता) हैं, देवासुरगणाग्रणी (देवता और असुरों के संग्रहक) हैं। देवादिदेव (देवताओं का देवता) हैं, देवर्षि (देवता ऋषि) हैं, देवासुरवरप्रद (देवता और असुरों को वरदान देने वाले) हैं॥
सर्वदेवमयोऽचिन्त्यो देवतात्माऽऽत्मसम्भवः ॥ 117 ॥ देवासुरेश्वर (देवता और असुरों के ईश्वर) हैं, विश्वो (विश्व) हैं, देवासुरमहेश्वर (देवता और असुरों के महेश्वर) हैं। सर्वदेवमय (सभी देवताओं से युक्त) हैं, अचिन्त्य (अचिंत्य) हैं, देवतात्मा (देवता की आत्मा) हैं, आत्मसम्भव (अपने-आप उत्पन्न) हैं॥
ईड्यो हस्तीश्वरो व्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः ॥ 118 ॥ उद्भित्त्रिविक्रम (उत्क्रमित होने वाले), वैद्य (वैद्य), विरजो (निर्मल), नीरजोऽमर (कमल से उत्पन्न होने वाले), ईड्यो (पूज्य), हस्तीश्वरो (हाथी के स्वामी), व्याघ्रो (बाघ), देवसिंहो (देवता सिंह), नरर्षभः (मनुष्यों का मुख्य श्रेष्ठ) हैं॥
सुयुक्तः शोभनो वज्री प्रासानाम्प्रभवोऽव्ययः ॥ 119 ॥ विबुधोऽग्रवर (सभी देवताओं का प्रमुख), सूक्ष्म (सूक्ष्म), सर्वदेवस्तपोमय (सभी देवताएं तपस्या से पूर्ण), सुयुक्तः (सुयोग्य), शोभनो (सुन्दर), वज्री (वज्रयुध्द), प्रासानाम्प्रभवोऽव्ययः (आयुधों के स्वामी, अविनाशी) हैं॥
शृङ्गी शृङ्गप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः ॥ 120 ॥ गुहः (हृदय में स्थित), कान्तो (मनोहारी), निजः सर्गः (अपना ही सृष्टि), पवित्रं सर्वपावनः (सबको शुद्ध करने वाला), शृङ्गी (शृङ्गी धारी), शृङ्गप्रियो (शृङ्गी प्रिय), बभ्रू (भ्रू), राजराजो (राजों का राजा), निरामयः (रोगमुक्त) हैं॥
ललाटाक्षो विश्वदेवो हरिणो ब्रह्मवर्चसः ॥ 121 ॥ अभिरामः (मनोहारी), सुरगणो (देवता समूह), विरामः (विश्राम), सर्वसाधनः (सभी साधनाओं का साधन), ललाटाक्षो (ललाट के आंख़ों वाला), विश्वदेवो (विश्वदेवता), हरिणो (हिरण्य), ब्रह्मवर्चसः (ब्रह्मतेज) हैं॥
सिद्धार्थः सिद्धभूतार्थोऽचिन्त्यः सत्यव्रतः शुचिः ॥ 122 ॥ स्थावराणाम्पतिश्चैव (अचल और चलात्मक जीवों के स्वामी), नियमेन्द्रियवर्धनः (इंद्रियों के नियमन करने वाले), सिद्धार्थः (सिद्धि का उद्देश्य), सिद्धभूतार्थोऽचिन्त्यः (सिद्धि और भूत के लक्ष्य के बारे में अचिंत्य), सत्यव्रतः (सत्यव्रत धारी), शुचिः (शुद्ध) हैं॥
विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमान् श्रीवर्धनो जगत् ॥ 123 ॥ व्रताधिपः (व्रतों के स्वामी), परं ब्रह्म (परम ब्रह्म), भक्तानाम्परमागतिः (भक्तों की अत्यंत प्राप्ति), विमुक्तो (मुक्त होने वाले), मुक्ततेजाश्च (मुक्ति की तेज), श्रीमान् (श्रीमंत), श्रीवर्धनो (श्री को बढ़ाने वाला), जगत् (जगत्) हैं॥