वर्ष 1960 से 1990 तक चला उत्पादन स्थानीय परमानंद पड़वार ने बताया कि 1960 से लेकर 1990 तक जनजातीय विभाग द्वारा प्रशिक्षण सह उत्पादन केंद्र के माध्यम से बहुत लोगों को रोजगार दिया गया था। किसानों द्वारा अभी मोवा घास की खेती नहीं की जाती और ना ही पटसन उपलब्ध है। एक तरह का पौधा है इसके रेशे बोरे, दरी, तम्बू, तिरपाल, टाट, रस्सियाँ, निम्नकोटि के कपड़े तथा कागज बनाने के काम आते हंै। कच्चे माल की कमी के कारण यह उपक्रम बंद कर दिया गया। हालांकि शुरुआती दौर में इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय द्वारा टीसीपीसी की मरम्मत कर छात्रों के रहने योग्य बनाया गया था। लालपुर में यूनिवर्सिटी निर्माण के बाद यहां कोई नहीं रहता। यह पूर्ण रूप से जर्जर है।
रोजगार के लिए आज लोग हो रहे परेशान लामू सिंह धुर्वे निवासी बाराती अमरकंटक ने बताया कि पहले यहां बहुत से व्यवसाय योग्य वस्तुओं का निर्माण किया जाता था जैसे तगदी से बना गलीचा, मोवा की रस्सी, टाट पट्टी, झाड़ू, सरई पत्ते का दोना पत्तल, बांस की टोपी, टोकनी, सूपा, चटाई आदि। बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों को रोजगार प्राप्त था पर इसके बंद होने के बाद बहुत लोग बेरोजगार होकर पलायन कर गए। उसके बाद से टीसीपीसी आज खंडर हो चुका है।
बांस व जूट से बनी कई सामग्रियों का होता था उत्पादन प्रशिक्षण सह उत्पादन केंद्र टीसीपीसी में जूट, मोवाघास, बांस से बनी सामग्री से टाटपट्टी, गलीचा, मोवा की रस्सी, झाड़ू, सरई पत्ते का दोना पत्तल, बांस की टोपी, टोकनी सूपा, चटाई सहित लोहे व लकड़ी की पेटी, कुर्सी, टेबल, संदूक, आलमारी का निर्माण किया जाता था जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलता था। जूट तत्कालीन समय में कोलकाता से आता था धीरे-धीरे उसका आना बंद हो गया इसके साथ ही मोवाघास की खेती स्थानीय किसानों ने बंद कर दी। कच्चा माल न मिलने की वजह से यह उद्योग धीरे-धीरे बंद होता गया।
इस संबंध में चर्चा करते हुए इसे पुन: प्रारंभ किए जाने के प्रयास किए जाएंगे। दिलीप जायसवाल, कुटीर एवं ग्रामोद्योग राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)