साल 1984 कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत मुश्किलों भरा था। 31 अक्टूबर 1984 को देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही अंगरक्षकों ने कर दी थी। इसके बाद राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बनाए गए। तब राजीव दुखों के पहाड़ में दबे हुए थे। उनके पास अपने और अपनों के लिए भी वक्त नहीं रह गया था।
पार्टी के नेताओं ने उन्हें आम चुनाव कराने की सलाह दी। वे इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति चुनावों में भुनाना चाहते थे। आखिरकार, उन्होंने 26 दिसंबर 1984 को चुनाव कराने की तारीख निर्धारित कर दी। वह उस वक्त अमेठी से सांसद थे। अपने छोटे भाई संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत होने के बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में 1981 में राजीव पहली बार इस सीट से सांसद बने थे।
राजीव चाहते थे कि सोनिया गांधी उनके साथ अमेठी के निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार के लिए जाएं, जहां मेनका गांधी यानी राजीव के छोटे भाई संजय गांधी की पत्नी अपने बेटे वरुण गांधी को गोद में लिए प्रतिद्वंद्वी बनकर चुनावी मैदान में बतौर निर्दलीय उम्मीदवार खड़ी थीं। जेवियर मोरो की किताब ‘द रेड साड़ीज’ के मुताबिक सोनिया गांधी तब सिर्फ मेनका की जेठानी नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री की पत्नी थीं। वह उस भूमिका का चयन कर पाने में बहुत असहज थीं, जो अधिकांश महिलाओं के लिए गर्व और संतुष्टि की बात हो सकती है। जेवियर मोरो ने लिखा है कि राजीव गांधी के इस प्रस्ताव से सोनिया गांधी उदास हो गई थीं।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद गांधी-नेहरू परिवार कलह सड़क पर आ गई और 1984 के लोकसभा चुनाव में मेनका गांधी ने खुली जंग का ऐलान कर दिया। तब उनके एक समर्थक ने कहा था कि मेनका की लड़ाई एक सांसद के खिलाफ नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ है।
परिवार की इस लड़ाई में तब अमेठी के हर घर की दीवार, चाहे वह मिट्टी की रही हो या ईंट की रही हो, राजीव के पक्ष में नारों से पट गई थीं। उन दीवारों पर लिखा था- आपका दहिना हाथ राजीव, अमेठी का नाम विकास, विकास का नाम राजीव और तारकी के साथ चलो, राजीव के साथ चलो। इस चुनाव में मेनका गांधी की जमानत जब्त हो गई थी।