अम्बेडकर नगर. सोचिए, युवावस्था में किसी का एक पैर कट जाए तो। कैसे होगी उसकी जिंदगी। आमतौर पर ऐसे लोगों की जिन्दगी वैसाखियों के सहारे ही कटती है। खाने-पीने से लेकर हर काम के लिए दूसरों का ही सहारा लेना पड़ता है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस में पत्रिका एक ऐसी महिला के जज्बे की कहानी बता रहे हैं जो अपना एक पैर गंवाने के बाद आज देश-दुनिया में अपना, अपने परिवार, अपने जिले, प्रदेश और देश का नाम रोशन कर रही हैं।
बात हो रही है यश भारती और पद्मश्री से सम्मानित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ अरुणिमा सिन्हा। यह विश्व की पहली नि:शक्त एवरेस्ट विजेता हैं। इनके साथ हुए एक हादसे ने उन्हें फौलादी बना दिया। आज अरुणिमा सिन्हा एक पैर न होने के बावजूद अपने हैरान कर देने वाले कारनामों से देश के युवाओं और ख़ास तौर से देश की बेटियों के लिए प्रेरणा श्रोत बन गई हैं। अरुणिमा केवल एवरेस्ट ही नहीं बल्कि विश्व की सात अति दुर्लभ पहाड़ों पर चढ़ाई कर वहां तिरंगा फहराने का लक्ष्य रखा है, जिनमे से अधिकांश पर उन्होंने तिरंगा फहरा भी दिया। ये पहाड़ी इतनी खतरनाक है कि एक चूक पर सीधे जान ही चली जाय, लेकिन अरुणिमा के बुलंद हौसले के आगे ये पहाड़ कुछ भी नहीं था।
मां के संघर्ष से मिला हौसला अरुणिमा सिन्हा अम्बेडकर नगर जिले की एक साधारण परिवार की बेटी हैं। इनके पिता की मृत्यु काफी पहले हो चुकी थी। मां श्रीमती ज्ञानबाला ने ही अरुणिमा सहित अपने तीन बच्चों का पालन पोषण किया। मां एक सरकारी अस्पताल में सुपरवाइजर थीं। इन्होंने काफी संघर्ष करके अपने बच्चों की परवरिश की। उनके संघर्ष को देख कर ही अरुणिमा के दिल में कुछ अलग करने का जज्बा जगा। वे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी भाग लेने लगीं और देखते ही देखते अरुणिमा राष्ट्रीय स्तर की वालीबाल खिलाडी बन गईं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अरुणिमा प्राइवेट नौकरी भी करती रहीं।
ट्रेन में इस तरह से गवां बैठीं पैर अरुणिमा सिन्हा खेल के सिललिल में पद्मावत एक्सप्रेस से वर्ष 2011 में लखनऊ से दिल्ली जा रही थीं कि रात में बरेली के पास कुछ बदमाशों ने इनके साथ बदसुलूकी शुरू कर दी। इन्हें उठा कर चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जब इन्हें होश आया तो ये अस्पताल में पड़ी थीं और इनका एक पैर काटा जा चुका था। कोई और होता तो शायद उसका हौसला वहीं टूट जाता, लेकिन अरुणिमा अपने कटे पैर को देख कर संकल्प लिया कि अब कुछ विशेष ही करना है। जब वे ठीक हुईं तो सीधे बछेन्द्री पाल से संपर्क किया। उनसे मिलने झारखंड पहुंची। इसके बाद उनके मार्ग निर्देशन में अरुणिमा ने एवरेस्ट पर विजय हासिल कर वल्र्ड रिकार्ड बना दिया।
समाज को आइना दिखा रहीं आमतौर पर परिवारों में बेटे और बेटियों के बीच फर्क किया जाता है। हालांकि, इसके बावजूद बेटियां बेटों के मुकाबले किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं और वे लगातार अपना लोहा मनवा रही हैं। इस बात की टीस अरुणिमा सिन्हा को भी है। वे कहती हैं कि उनके साथ हुए हादसे ने उन्हें इस उंचाई पर पहुंचाया, जहां एक साल में ही दो-दो नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया। वे बताती हैं कि वे ऐसे कस्बे से हैं जहाँ लोग लड़कियों को ट्रैक सूट में भी देखना पसंद नहीं करते। उनका मानना है कि अगर लड़कियों को आगे बढऩे का मौका दिया जाय तो वे किसी भी क्षेत्र में आगे बढकऱ देश का नाम रोशन कर सकती हैं।
गर्व है अम्बेडकर नगर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वाली अरुणिमा सिन्हा पर आज अम्बेडकर नगर जिले के लोगों को गर्व है। जिस राजकीय बालिका इंटर कालेज अकबरपुर से अरुणिमा ने अपने खेल की पारी की शुरुआत की थी और राष्ट्रीय स्तर की खिलाडी बनी वहां की छात्राएं और अध्यापिकाएं अरुणिमा पर नाज करती हैं। कालेज की प्रधानाचार्या शेफाली प्रताप कहती हैं कि उनके कार्यकाल से पहले अरुणिमा ने कालेज छोड़ दिया था, लेकिन उन्हें इस बात का गर्व है कि जिस कालेज की वे प्रिंसिपल हैं, अरुणिमा ने अपने संघर्षों की शुरुआत उसी कालेज से की थीं। उन्होंने कहा कि अरुणिमा से सभी छात्राओं और अभिभावकों को सीख लेनी चाहिए कि वे बेटियों को आगे बढऩे का अवसर दें।