कस्बे में दर्जनों छोट-बडे मंदिर है, जिनमें अपनी अलग पहचान रखने वाले भगवान गोविन्द देवजी व जगन्नाथजी के मंदिर हैं, जिनके साथ अनेक चमत्कारिक किवंदतियां भी जुडी हुई हैं। इसके अलावा स्थापत्य कला को दर्शाती हुई डेढ दर्जन बावडियां तथा नीबू व आम के असंख्य बागानों ने पूरे देश में राजगढ को अलग पहचान दिलाई है। यह बात और है कि संरक्षण के अभाव में अब ये बाग और बावडियां अपने मूल अस्तित्व को खो चुकी हैं।
खनिज-उद्योग धन्धे राजगढ क्षेत्र के खोहदरीबा में तांबे के विशाल भण्डार, भूरी की डूंगरी में लोहे के तथा यहां से निकलने वाले सफेद मार्बल पत्थर ने राजगढ को देश के मानचित्र पर अपनी पहचान दिलाई है। किसी जमाने में राजगढ़ कस्बे में टकसाल हुआ करती थी, जिसे ब्रिटिश काल में कलकत्ता ले जाया गया, जीरे की मण्डी के लिये तो राजगढ देश और विदेश में विख्यात था। लेकिन आजादी के बाद राजगढ लगातार राजनैतिक उपेक्षाओं का शिकार रहा और इसके स्वर्णकाल का धीरे-धीरे हस होता गया।
इतिहास का गौरवशाली होना किसी के लिये इसलिये ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उससे प्रेरणा लेकर, कुछ और स्वर्णिम पन्ने उसमें जोडे जायें, लेकिन यह राजगढ के वर्तमान का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा, कि जैसे स्वर्णिम और गौरवशाली इतिहास पर यहां के वाशिंदों को $फक्र है, उसके अनुरूप यहां का चहुंमुखी विकास नहीं हो पाया। किसी जमाने में इस क्षेत्र की औद्योगिक, वाणिज्यिक व आर्थिक उन्नति तथा तपोभूमि के रूप में प्रसिद्ध रही यहां की धरा की अपनी शान थी, लेकिन उसकी तुलना में वर्तमान में यहां का औद्योगिक विकास हो नही हो पाया, जिससे आज यहां के लोगों के समक्ष रोजगार की बडी समस्या है, गिरते जलस्तर के चलते क्षेत्र में कृषि से जुडे लोगों की स्थिति भी ज्यादा ठीक नही है। संरक्षण का अभाव के चलते यहां की पुरा-सम्पदा जर्जर हो चुकी है, वहीं कॉलोनीकरण की अंधी दौड में क्षेत्र के दर्जनों सघन बागानों में अब इमारतें दिखाई देती हैं।
आराध्यदेव बाबा बाघराज यूं तो महान व्यक्तित्वों को हमारे देश में पूजने की परम्परा शुरू से ही है, किन्तु पूरे देश में ऐसा उदाहरण शायद ही अन्यत्र देखने को मिलेगा, जहां के शासक को उनकी समाज सेवा के कारण उनकी जनता उन्हे मरणोपरान्त सदियों तक पूजती चली आ रही हो । कुछ ऐसे ही व्यक्तित्व के स्वामी थे राजगढ के संस्थापक बाबा बाघराज। आज से करीब 1867 वर्ष पूर्व इस नगर के स्थापना करने वाले बाघराज, तपोनिष्ठ संत भूरासिद्ध महाराज के शिष्य थे, इन्हे स्वयं भी सिंह का रूप बदलने की सिद्धि प्राप्त थी, ये रात्रि में सिंह का रूप धारण कर, पूरे नगर की स्वयं सुरक्षा करते थे, जिससे प्रजा में अमन-चैन कायम था। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, कई वर्षों के बाद एक दिन सिंह से पुन: नर के रूप में आते समय ये किले के दक्षिण में स्थित प्रतापबांध की पाल पर पत्थर के बन गये। पत्थर के शेर बन जाने के बाद भी बाघराज की समाजसेवा और रक्षा का कार्य चलता रहा, जब चोर-लुटेरे रात्रि को आते तो जनता को सतर्क करने के लिये बाघराज की प्रतिमा से आवाज निकलती थी, जिससे जनता सावधान हो जाती और चोर भाग जाते। इससे भयभीत होकर एक बार चोरों ने इस प्रतिमा का सिर काट दिया, जिसके बाद आवाज आना बंद हो गई। आ
ज यही प्रतिमा बाघराज बाबा के रूप में पूजी जाती है, अपनी अमूल्य सेवाओं के कारण महाराज बाघराज जीवनकाल में भी पूज्य रहे और मरणोपरान्त इतनी सदियां गुजर जाने के बाद तक भी उनकी प्रजा उन्हे भुला नही पाई है। प्रजा की मनोकामनाऐं पूर्ण करने वाले बाघराज क्षेत्र के आराध्य है, क्षेत्र में प्रत्येक मांगलिक कार्य से पूर्व बाबा बाघराज की पूजा की जाती है, नव जोडे सबसे पहले यहीं जाकर बाबा का आर्शिवाद लेते हैं और तो और गाय-भैंस के ब्याहने पर भी सबसे पहले दूध तक बाबा को ही चढाया जाता है।