इसके बाद नरूवंश के रावराजा प्रतापसिंह ने 1770 ई0 में इसे अपने अधिकार में ले लिया और राजगढ दुर्ग का पुर्ननिर्माण करवा कर इसे नया स्वरूप प्रदान किया, इसी दौरान राजगढ को राजधानी बनने का सौभाग्य मिला। स्थापत्य कलाप्रेमी राजा विनयसिंह ने ना केवल दुर्ग में अद्भुत शीशमहल का निर्माण कराया बल्कि सामरिक दृष्टि को देखते हुए इन्हीं के द्वारा राजगढ के चारों और बनवाई गई खाई व परकोटों के अलावा चारों दिशाओं में बने पांच विशाल दरवाजे मालाखेडा दरवाजा, बसवा दरवाजा, माचाडी दरवाजा, पई दरवाजा व कांकवाडी दरवाजों के रहते किसी भी शत्रु राज्य की हिम्मत इस राज्य की ओर देखने तक की नहीं होती थी।
यूं तो इस राज्य पर शासन करने वाले सभी शासकों के शासनकाल के दौरान ही राजगढ नगर शनै: शनै: उन्नती के पथ पर अग्रसर होता गया। फिर भी हिजहाईनेस सवाई जयसिंह के शासनकाल के दौरान राजगढ की चहुंमुखी उन्नती हुई। यह वह समय था जब राजगढ को ना केवल तहसील बनने का गौरव मिला, बल्कि इसी समय डाकघर (1901), अस्पताल (1916) तथा बहुद्देशीय राजकीय हाईस्कूल (1928) की स्थापना हुई। सवाई जयसिंह ने इस समय बाल विवाह तथा धूम्रपान पर सख्ती से प्रतिबन्ध लगाये। 1967 में महाविद्यालय।
योगी-संत परम्परा इस धरती को योगीसंत भूरासिद्ध महाराज, नंगेश्वर महाराज, हट्टीगोपालजी, नागा बाबा, अटलदास जी, चोखादास, बहुरंगी महाराज, हाथीचिंघाड महाराज, औलिया संत इस्माईल बडे, दादूपंथी संत मरजी के मूजिम, मौनीसंत, अवधूत संत गंगाभारती, श्यामदासजी, हरिदास जी, दादूपंथी निर्भयदासजी, कूबडदास, अलमस्त बाबा सुन्दरलाल, फकीर महबूब खान जैसे चमत्कारी, हठी-योगी संतों की जन्मस्थली व तपोस्थली होने का भी सौभाग्य मिला है।
सम्राट हेमू की जन्मभूमि बहुत कम लोगों को पता है कि अपने बुद्धि बल से सूर्यवंश को उन्नति के शिखर पर ले जाने वाले तथा महान अकबर से लोहा लेने वाले छत्रपति राजा हेमू का जन्म राजगढ के समीप स्थित माचाडी कस्बे में हुआ था, भले ही पानीपत के युद्ध में हेमू मारे गये, लेकिन सूर्यवंश के विघटन के दिनों में सन् 1556 ई. में दिल्ली के गर्वनर को हराकर यही हेमूं दिल्ली का शासक बना था और अपने जीवनकाल में सूरीवंश के लिये वीरतापूर्वक कुल 52 लडाईयां लडी।