नाराजगी के यह शब्द इसलिए कहे गए थे कि एक मां अपने शहीद बेटे के सम्मान की लड़ाई लड़ते-लड़ते सिस्टम के आगे हारा हुआ महसूस कर रही थी।
जोरदार धमाका, बस के उड़े परखच्चे और जवानों के सड़क पर बिखरे लाशों के टुकड़े…
जोरदार धमाका, बस के उड़े परखच्चे और जवानों के सड़क पर बिखरे लाशों के टुकड़े…
ऊपर की लाइन पढ़कर आपके दिमाग में किसी वीभत्स सीन की इमेजिनरी सीन क्रिएट हो रही होगी न? ठीक वैसे ही जैसे कोई फिल्म का सीन दिमाग में घूम रहा होता है। जी हां, कुछ ऐसा ही हुआ था उस 14 फरवरी के मनहूस दिन को।
लेकिन, यह कोई फिल्म का सीन नहीं था। यह मौत का नंगा नाच था। देश के आन बान और शान पर कायराना हमला था। ऐसा हमला जो पूरे देश के युवाओं, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी को आक्रोशित कर दिया था। सबके खून में उबाल था। हर भारतीय किसी भी कीमत पर दोषियों से बदला लेना चाहता था। ठीक वैसे ही जैसे इन जवानों के साथ हुआ था।
काफिला अपने तय रूट पर आगे बढ़ रहा था। कुछ जवान बस में गुनगुना रहे थे, कुछ चुटकुले सुना रहे थे, कुछ ठहांका लगा रहे थे और कुछ जम्हाई ले रहे थे। सड़क की दूसरे तरफ से आ रही एक SUV ने काफिले के साथ चल रही एक बस में टक्कर मार दी। SUV जैसे ही जवानों के काफिले से टकराई, वैसे ही उसमें जबरदस्त विस्फोट हो गया।
धमाका इतना भयंकर था कि बस के परखच्चे उड़ गए। इसके बाद घात लगाए आतंकियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इस हमले में CRPF के 40 जवान शहीद हो गए। शहीद हुए इन जांबाजों ने देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।

कहानी में आगे बढ़ने से पहले महेश कुमार यादव के बारे में जान लेते हैं… टुड़िहार बदल का पुरवा गांव के शहीद महेश के पिता राजकुमार यादव ने बताया कि महेश कुल दो भाई और एक बहन में सबसे बड़े थे। छोटे भाई का नाम अमरेश और बहन का नाम वंदना है। वह शुरू से ही देश की सेवा करना चाहते थे। B.A करने के बाद साल 2017 में वह CRPF में भर्ती हुए। उन्हें 118वीं बटालियन में जॉइनिंग मिली।

जयपुर में हुई ट्रेनिंग, योद्धा बनने की जिद ने बनाया कमांडो महेश साल 2017 में CRPF में भर्ती हुए। भर्ती के बाद वह ट्रेनिंग के लिए जयपुर गए। ट्रेनिंग खत्म होने के बाद उनकी पहली पोस्टिंग हिमाचल प्रदेश में हुई। हिमाचल प्रदेश में पोस्टिंग के दौरान ही उन्होंने CRPF का कमांडो कोर्स भी किया। वह उसमें सफल हुए और फिर कमांडो यूनिट का हिस्सा बने। उसके बाद उनकी पोस्टिंग कश्मीर में हुई। वहां उन्हें आतंकवाद विरोधी अभियान में लगी टीम में शामिल किया गया था।

पिता राजकुमार के हिस्से की कहानी उन्हीं की जुबानी…
महेश के पिताजी बताते हैं, ‘मैं मुंबई में ऑटो चलाता था। हम कुल चार भाई हैं। चारों भाई मुंबई में ही रहते थे। उन दिनों महेश के दादाजी की तबीयत खराब रहती थी इसलिए उनको इलाज के लिए मुंबई जाना था। महेश ने मुझसे फोन करके कहा कि दादाजी का टाटा हॉस्पिटल में अच्छे से इलाज कराना। एक हफ्ते के लिए छुट्टी ले लेना। पिताजी, पैसे की चिंता मत करना। मैं हूं न। जरूरत पड़ी तो मैं भी एक महीने की छुट्टी लेकर आऊंगा। राजकुमार महेश से बोले कि चिंता मत करना यहां कोई दिक्कत नहीं होगी। पिता राजकुमार यादव की अपने बेटे महेश से यही आखिरी बातचीत थी।
घटना वाले दिन यानी 14 फरवरी का जिक्र करते हुए राजकुमार यादव कहते हैं कि उस दिन महेश का छोटा भाई अमरेश अपने दादाजी को लेकर कुर्ला स्टेशन पहुंचा। रात के करीब 9 बज रहे थे। मैं उन दोनों को लेने स्टेशन गया था। अभी मैं उनको रिसीव कर ही रहा था तबतक फोन की घंटी बजी। किसी अनजान नंबर से कॉल आया था। फोन उठाते ही उधर से किसी ने प्रश्न पूछने के लहजे में कहा कि आप महेश के पिताजी बोल रहे हैं? मैंने कहा, हां। बताइए, क्या बात है? आप कौन हैं? उन्होंने अपना परिचय दिया।
फोन पर बटालियन के कमांडेंट साहब की आवाज थी। रात को कश्मीर से फोन की घंटी बजने से ऐसा लग रहा था मानो किसी अनहोनी के घटना की घंटी बजी हो। मन ही मन बेटे के सकुशल होने कि प्रार्थना करने लगा। चंद सेकंडों में ही मैंने कई देवी-देवताओं को याद कर लिया था। कुछ सेकंड के साइलेंस के बाद उन्होंने कहा कि महेश को चोट लगी है। आपको यहां आना होगा।
यह सुनते ही मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। हाथ कांप रहे थे। होंठ हिल रहे थे। जुबान लड़खड़ा रही थी। मानो कुछ कहना चाह रहे हों लेकिन कह नहीं पा रहे हों। अनहोनी की आशंका से दिल बैठ गया। छोटे बेटे ने संभाला। वहीं से हम तुरंत घर को चल दिए। फोन पर देखा की सभी जवान शहीद हो गए हैं। बस की हालत देखकर कौन कह सकता था कि कोई बचा होगा। पैरों तले जमीन खिसक गई थी। एक बाप के लिए सबसे बुरा दिन वो दिन होता है जब उसके सामने ही उसके जवान बेटे की मौत हो जाती है। मैं अपने आप को हारा हुआ महसूस कर रहा था। एक अभागे पिता की तरह। जैसे-तैसे अगले दिन हम गांव पहुंचे।
गांव में जाने वाले रास्ते से लेकर दरवाजे तक हजारों की भीड़ जमा थी। घर के तरफ एक-एक कदम बढ़ाना मुश्किल हो रहा था। मन में यही सोच रहा था की महेश की मां, पत्नी, बहन और बच्चों को कैसे ढांढस बधाउंगा जबकि मैं खुद ही अंदर से टुटा हुआ हूं। लेकिन, दूसरे ही पल यह भी ख्याल आया कि मैं ही टूट जाऊंगा तो परिवार के बाकि लोगों का क्या होगा। उसके बाद का आप सबको यानी मीडिया को पता ही है।
बेटे की कहानी सुनाते-सुनाते पिता राजकुमार के आंखों से हर-हर आंसुओं की धारा बह रही थी। ऐसा लग रहा था मानो कहानी सुनाते हुए उन्होंने उस पल को दुबारा जी लिया हो। बिल्कुल जीवंत। फिल्म के किसी सीन की तरह। द्वार पर जितने लोग मौजूद थे, जो इस कहानी को सुन रहे थे। इंटरव्यू को देख रहे थे। सबकी आंखें नम थीं। मेरी भी।
पल्लू से पोंछते हुए आंसू, सिसकियों की आती आवाजें यह बताने के लिए काफी थीं कि एक मां के लिए बेटे की क्या अहमियत होती है। 4 साल होने को हैं। लेकिन, मां का दुःख, तकलीफ, बेटे के लिए तड़प को देखकर लग रहा था मानो अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है। महेश सुन रहे हो न…
महेश के पत्नी संजना के बारे में बात करते हुए कहती हैं कि उसके सामने नहीं रोती हूं। मजबूत रहने की कोशिश करती हूं। बेटे के जाने के बाद वही तो बेटी बनकर मेरे साथ है। महेश के दोनों छोटे बच्चों में उसको ढूंढती रहती हूं। मैंने अब यही मान लिया है कि महेश तो नहीं है लेकिन उसकी निशानी यही दो बच्चे हैं। अगर मुझे पता होता कि बेटा शहीद हो जाएगा तो नमक-रोटी खा लेती लेकिन उसको फौज में नहीं भेजती।
यह भी पढ़ें
पुलवामा के 4 सालः 40 शहीदों में से 12 यूपी के, आज किस हाल में हैं मां-बाप, पत्नी-बच्चे
रोते हुए पत्नी बोलीं सरकार पैसे ले ले, मेरे पति को वापस कर दे महेश के शहादत के बाद पत्नी संजना को राज्य सरकार की तरफ से करछना तहसील में क्लर्क की नौकरी मिली है। दोनों बच्चे सेंट जोसेफ स्कूल, नैनी, प्रयागराज में पढ़ते हैं। बच्चों को पढ़ाने और नौकरी करने के लिए संजना नैनी में ही रहती हैं।
महेश को याद करते हुए वह भावुक हो जाती हैं। उनकी प्रशासन से शिकायत है कि उनके पति के शहादत को उचित सम्मान नहीं मिला। उन्होंने बताया कि पति के नाम पर गेट, पार्क सड़क और उनकी मूर्ति लगाने का वादा किया गया था। लेकिन वो आज तक पूरा नहीं हुआ। सरकार मेरे पति को अगर उचित सम्म्मान नहीं दे सकती है तो अपने पैसे वापस ले ले और मेरे पति को वापस कर दे। कुछ दिन पहले ही वह तीन दिन की छुट्टी पर घर आए थे और फिर वापस कश्मीर चले गए। महेश की वापसी के महज 3 दिन बाद ही शहादत की इस खबर ने पूरे परिवार को सदमें में धकेल दिया था।
सिर्फ वैलेंटाइन डे ही नहीं, शहीद के वाइफ के लिए पूरा साल रहता है सैड डे संजना कहती हैं, ‘महेश के जाने के बाद कोई नहीं है जिससे अपने मन की बात कर सकें उससे दिल की बात कह सकें। घुटते रहते हैं। दो बच्चे हैं। इनको ही देखना है, पढ़ाना है। बच्चों की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं कि इन्हीं दोनों में मैं महेश की झलक देखने की कोशिश करती हूं। जिस दिन वो शहीद हुए उस वैलेंटाइन डे था। प्रेम का दिन था। उसी दिन आतंकियों ने मुझसे मेरा प्रेम छिन लिया। दूसरों के लिए होता होगा वैलेंटाइन डे लेकिन मेरे लिए तो पूरा साल ही सैड डे की तरह है।’ जब कोई त्यौहार आता है कोई फंक्शन होता है तो उस समय की महेश और भी ज्यादा याद आती है। बच्चे पापा के बारे में पूछते थे तो मैं कहती की बड़े हो जाओगे तब आएंगे। अब बच्चे बड़े हो गए हैं। सब समझने लगे हैं।
बेटे समर और शाहिल से जब पापा के बारे में सवाल किया तो उन्होंने कहा की वो शहीद हो गए हैं। दोनों बच्चों ने एक स्वर में कहा कि वो दोनों बड़े होकर फौज में जाना चाहते हैं। आगे बोले कि जैसे आतंकियों ने मेरे पापा को मारा था। हम भी उनको वैसे ही मारेंगे।

भाई अमरेश के हिस्से की कहानी…
जिस भाई ने मुझे कंधे पर बिठाकर घुमाया हो, उस दिन मैं उसके ताबूत को कंधा देकर हमेशा के लिए विदा करने जा रहा था…यही कहते हुए अमरेश फफक कर रो पड़ते हैं । कुछ देर रुकते हैं। रुंधे गले और नम आंखों से फिर आगे बताते हैं कि, जब क्षेत्र में जाते हैं और सभी लोग सम्मान देते हैं , शहीद परिवार के नाम से पुकारते हैं तो गर्व होता है। एक तरफ भाई के खोने का दुःख है तो दूसरी तरफ उनके देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने का गर्व भी। सिस्टम से एक ही दरख्वास्त है कि उन्होंने जितने वादे किये थे सबको पूरा करवा दें।


