परस्पर वर्चस्व, शक्ति प्रदर्शन और धन-बल का इस्तेमाल होने लगा है। लेकिन 90 के दशक तक माहौल बिल्कुल अलग होता था। प्रत्याशियों का किसी भी संगठन से ताल्लुक हो पर मुद्दे संस्थानों और छात्र-छात्राओं से जुड़े ही होते थे। इसी दौर में राज्यसभा सांसद भूपेंद्र यादव ने भी अपना सियासी सफरनामा शुरू किया। जीसीए के छात्रसंघ उपाध्यक्ष रहे यादव ने छात्र राजनीति से जुड़ी उनकी कई यादें तरोताजा की।
कॉलेज में करते थे प्रचार
मैं 1990-91 में जीसीए (अब सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय) में छात्र राजनीति में था। कॉलेज का उपाध्यक्ष भी रहा। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर पर हम चुनाव लड़ते थे। हमारी छात्रसंघ अध्यक्ष ज्योति तंवर थी। आज की तरह वाहन रैली, धन-बल जैसा प्रयोग नहीं होता था। केवल कॉलेज में प्रचार-प्रसार किया करते थे। कक्षाओं या घर जाकर अपने सहपाठियों, मतदाताओं से मिल लेते थे। यही हमारी चुनाव तक रणनीति रहती थी।
शाम को हो जाते सब साथ छात्रसंघ चुनाव में एनएसयूआई और एबीवीपी के बीच ही मुकाबले होते थे। एसडब्ल्यूओ भी बनी थी। हमारा विचारधारा और मुद्दे भले ही पृथक हों, पर शाम को सब साथ बैठते थे। कोई मनमुटाव, दुश्मनी, विवाद की जगह नहीं होती थी। कॉलेज की कैंटीन और थडिय़ों पर गपशप करते हुए चाय-समोसों का दौर चलता था। इस स्वस्थ परम्परा से मुझे राजनीति में बहुत सहायता मिली है। आज भी सभी बड़ी पार्टियों के नेताओं से मेरे व्यक्तिगत मतभेद नहीं हैं।
छात्रसंघ चुनाव यानी महोत्सव
छात्रसंघ चुनाव सालाना महोत्सव जैसे ही होते थे। जैसे जीसीए की कल्चरल नाइट, एस.एस. माथुर डिबेट और स्पोट्र्स प्रसिद्ध थे, वैसे ही छात्रसंघ चुनाव भी जोशो-खरोश से होते थे। वास्तव में चुनाव कॉलेज के सभी विद्यार्थियों से मिलने-जुलने का माध्यम था। ज्यादातर स्टूडेंट साइकिल पर आते थे। कुछेक छात्रों के पास स्कूटर-बाइक होती थीं। उनके साथ बैठकर घूम लेते थे। शायद ही कभी कार-जीप में रैली निकाली जाती थी। अब तो छात्र राजनीति का स्वरूप बिल्कुल बदल चुका है।