उदय पटेल अहमदाबाद. भारतीय खेलों में वर्ष 1970 में पहला अर्जुन पुरस्कार जीतने वाले गुजरात के सुधीर परब अब 80 वर्ष के हो चुके हैं। गुजरात के वे पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
वडोदरा में रहने वाले पूर्व खो-खो खिलाड़ी परब भारत के राष्ट्रमंडल, ओलंपिक और एशियाई खेलों में बेहतर प्रदर्शन से काफी खुश हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में खेलों से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर में बेहतरी से यह सब संभव हो सका है।
वडोदरा में रहने वाले पूर्व खो-खो खिलाड़ी परब भारत के राष्ट्रमंडल, ओलंपिक और एशियाई खेलों में बेहतर प्रदर्शन से काफी खुश हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में खेलों से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर में बेहतरी से यह सब संभव हो सका है।
परब के मुताबिक आज के खिलाडय़िों-एथलीटों को खूब मेहनत करनी चाहिए। वे खुद उस वक्त 8 घंटे की कड़ी मेहनत करते थे। उन्होंने आगामी राष्ट्रमंडल खेलों, एशियाई खेलों और ओलंपिक खेलों में भी भारतीय खिलाड़ी और एथलीटों के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जताई।
परब ऐसे खिलाडिय़ों के लिए एक आदर्श के रूप में है जो क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में बेहतरी के लिए लगातार संघर्ष करते हैं। बहुत ही कम सुविधाओं और मामूली फीस के बावजूद परब ने आधा दर्जन से ज्यादा राष्ट्रीय टूर्नामेंट में भाग लिया। उन्होंने अपनी मेहनत से राष्ट्रीय टीम में जगह बनाई। ऐसे में खो-खो के प्रति जज्बे से ही उनका उत्साह बना रहता था।
परब के मुताबिक आज से 50 वर्ष पहले किसी तरह की सुविधा के बगैर खिलाड़ी अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया करते थे। तब उन्हें वजीफा भी बहुत कम मिला करता था, लेकिन फिर भी खेल के प्रति निष्ठा और समर्पण के चलते भारत के खिलाडिय़ों ने खेल में उत्तरोत्तर प्रगति की।
पूरी पीढ़ी का आया बदलाव उन्होंने कहा कि उन दिनों और आज के समय में काफी परिवर्तन आ गया है। पूरी पी?ी का बदलाव आ चुका है। तब वे तीसरे दर्जे में सफर करते थे। पैसा भी उतना नहीं मिला करता था। 1965 और 1967 में एकलव्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुके परब ने बताया कि खो-खो जैसे खेल में अब नियम सहित कई बदलाव भी हो चुके हैं। 50 के दशक में जब वे खो-खो खेलते थे तब क्रिकेट के अलावा अन्य किसी खेलों को लेकर इतना प्रोत्साहन भी नहीं मिलता था। तब सरकारों की ओर से भी कोई मदद नहीं मिल पाती थी।
हाल ही में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर जैसा ध्यान दिया गया ऐसी बातें तो उस वक्त सोची भी नहीं जा सकती। क्रिकेट के जमाने में खो-खो जैसे भारतीय खेल में बेहतर प्रदर्शन करना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। ऐसे में अन्य खेल के प्रति समर्पण का भाव काफी मुश्किल काम था।
परब के मुताबिक वे इस खेल को बहुत चाहते थे। इसके फलस्वरूप उन्होंने सिर्फ 7 वर्ष की उम्र में गुजरात क्रीड़ा मंडल में खो- खो खेलना आरंभ किया।
11 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय जूनियर टूर्नामेंट में भाग लिया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मु?कर नहीं देखा। 17 की उम्र में वे गुजरात की टीम के लिए चुने गए। गुजरात की टीम 1961, 1962, 1965, 1967 और 1970 में राष्ट्रीय चैंपियन बनी।
उन्होंने वडोदरा के यूथ सर्विस सेंटर में एथलीटों को ट्रेनिंग देना शुरू किया था लेकिन जब 80 के दशक में क्रिकेट ज्यादा लोकप्रिय हुआ तब एथलीटों की संख्या में कमी देखी गई। भारतीय खो-खो टीम के कोच रह चुके परब कहते हैं कि देश में खेल संस्कृति का होना जरूरी है।
हाल ही में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर जैसा ध्यान दिया गया ऐसी बातें तो उस वक्त सोची भी नहीं जा सकती। क्रिकेट के जमाने में खो-खो जैसे भारतीय खेल में बेहतर प्रदर्शन करना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। ऐसे में अन्य खेल के प्रति समर्पण का भाव काफी मुश्किल काम था।
परब के मुताबिक वे इस खेल को बहुत चाहते थे। इसके फलस्वरूप उन्होंने सिर्फ 7 वर्ष की उम्र में गुजरात क्रीड़ा मंडल में खो- खो खेलना आरंभ किया।
11 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय जूनियर टूर्नामेंट में भाग लिया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मु?कर नहीं देखा। 17 की उम्र में वे गुजरात की टीम के लिए चुने गए। गुजरात की टीम 1961, 1962, 1965, 1967 और 1970 में राष्ट्रीय चैंपियन बनी।
उन्होंने वडोदरा के यूथ सर्विस सेंटर में एथलीटों को ट्रेनिंग देना शुरू किया था लेकिन जब 80 के दशक में क्रिकेट ज्यादा लोकप्रिय हुआ तब एथलीटों की संख्या में कमी देखी गई। भारतीय खो-खो टीम के कोच रह चुके परब कहते हैं कि देश में खेल संस्कृति का होना जरूरी है।
अमरीकी लोगों को समझाने की थी जिम्मेदारी उन्होंने बताया कि कोलकाता में 1993 में खेले गए सार्क गेम्स में खो-खो को शामिल किया गया था। तब वे यह प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे और अमरीकी लोगों को इस खेल को समझाने की जिम्मेदारी उनपर थी। खो-खो एक टीम खेल है जिसमें एक दूसरे खिलाडय़िों को समझना बहुत जरूरी है।