अहमदाबाद. आईपीएस अधिकारी का नाम सुनते ही आपके जहन में अपराधियों से सख्ती से निपटने वाला और कड़क स्वभाव वाले खाकी वर्दीधारी व्यक्ति की तस्वीर आएगी। लेकिन गुजरात में एक ऐसे आईपीएस अधिकारी भी हैं, जो अपराधियों के लिए कुछ ऐसे ही सख्त हैं उतने ही गरीब और जरूरतमंदों के लिए नरम हैं। स्वभाव ऐसा कि जहां जाते हैं, वहां के लोगों का दिल जीत लेते हैं। उनकी बदली होने पर भी लोग उन्हें याद करना नहीं भूलते।
हम बात कर रहे हैं वर्ष २००३ बैच के आईपीएस अधिकारी अशोक यादव की। राजस्थान के अलवर जिले की बहरोड़ तहसील के नांगल खोडिया गांव निवासी अशोक यादव का जन्म २० जनवरी १९७६ को हुआ। पिता रामअवतार यादव प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हैं। मां का नाम दिलकौर यादव है। यादव फिलहाल भावनगर रेंज के पुलिस उपमहानिरीक्षक (डीआईजी) हैं।
यादव का राजस्थान से जुड़ाव आज भी उतना है, जितना पहले था। वे साल में तीन से चार बार जन्मभूमि जरूर जाते हैं। सबसे ज्यादा उन्हें राजस्थानी खाना याद आता है। विशेषकर राजस्थानी दाल-बाटी, चूरमा और राजस्थानी समोसे की उन्हें यहां कमी महसूस होती है।
हम बात कर रहे हैं वर्ष २००३ बैच के आईपीएस अधिकारी अशोक यादव की। राजस्थान के अलवर जिले की बहरोड़ तहसील के नांगल खोडिया गांव निवासी अशोक यादव का जन्म २० जनवरी १९७६ को हुआ। पिता रामअवतार यादव प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हैं। मां का नाम दिलकौर यादव है। यादव फिलहाल भावनगर रेंज के पुलिस उपमहानिरीक्षक (डीआईजी) हैं।
यादव का राजस्थान से जुड़ाव आज भी उतना है, जितना पहले था। वे साल में तीन से चार बार जन्मभूमि जरूर जाते हैं। सबसे ज्यादा उन्हें राजस्थानी खाना याद आता है। विशेषकर राजस्थानी दाल-बाटी, चूरमा और राजस्थानी समोसे की उन्हें यहां कमी महसूस होती है।
सरकारी स्कूल-कॉलेजों से की पढ़ाई, डीयू के हंै पूर्व छात्र
अशोक यादव ने दसवीं की पढ़ाई अपने गांव अलवर की बहरोड तहसील के नांगल खोडिया हाईस्कूल से की। 12वीं बहरोड़ के सरकारी स्कूल से, जबकि बीए उन्होंने राजस्थान के जयपुर कॉलेज से किया। एमए दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से की है।
अशोक यादव ने दसवीं की पढ़ाई अपने गांव अलवर की बहरोड तहसील के नांगल खोडिया हाईस्कूल से की। 12वीं बहरोड़ के सरकारी स्कूल से, जबकि बीए उन्होंने राजस्थान के जयपुर कॉलेज से किया। एमए दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से की है।
बच्चियों को स्कूल न जाते देख उठा लिया पढ़ाने का बीड़ा
बालिका शिक्षा के भी वह हिमायती हैं। वर्ष २०१२ में बनासकांठा एसपी रहते हुए उन्होंने अमीरगढ़ तहसील के विरमपुर गांव की २५ बच्चियों को गोद लिया। आज यह संख्या ३२५ पर पहुंच गई है। उन्हें पता चला था कि गरीबी की वजह से यह बच्चियां स्कूल नहीं जाती थीं। यह बात उन्हें अंदर तक झकझोर गई। उसी समय उन्होंने निर्णय किया कि गरीब परिवार की बच्चियों की शिक्षा का पूरा खर्चा वह उठाएंगे। कोई बच्ची पैसों की वजह से शिक्षा से वंचित नहीं रहेगी। इस कार्य में तत्कालीन अतिरिक्त कलक्टर दिलीप राणा का भी उन्हें भरपूर साथ मिला। यादव हर साल अपना जन्मदिन इन बच्चियों के बीच मनाते हैं। इस साल पुलवामा में सुरक्षा जवानों के शहीद हो जाने से उन्होंने जन्मदिन नहीं मनाया।
बालिका शिक्षा के भी वह हिमायती हैं। वर्ष २०१२ में बनासकांठा एसपी रहते हुए उन्होंने अमीरगढ़ तहसील के विरमपुर गांव की २५ बच्चियों को गोद लिया। आज यह संख्या ३२५ पर पहुंच गई है। उन्हें पता चला था कि गरीबी की वजह से यह बच्चियां स्कूल नहीं जाती थीं। यह बात उन्हें अंदर तक झकझोर गई। उसी समय उन्होंने निर्णय किया कि गरीब परिवार की बच्चियों की शिक्षा का पूरा खर्चा वह उठाएंगे। कोई बच्ची पैसों की वजह से शिक्षा से वंचित नहीं रहेगी। इस कार्य में तत्कालीन अतिरिक्त कलक्टर दिलीप राणा का भी उन्हें भरपूर साथ मिला। यादव हर साल अपना जन्मदिन इन बच्चियों के बीच मनाते हैं। इस साल पुलवामा में सुरक्षा जवानों के शहीद हो जाने से उन्होंने जन्मदिन नहीं मनाया।
आणंद का लक्कड़पुरा गांव भी लिया है गोद
वर्ष २०१४-१६ में एसपी रहते हुए उन्होंने आणंद के लक्कड़पुरा गांव को भी गोद लिया है। इसमें वे स्वच्छता अभियान, घर-घर शौचालय, पुस्तकालय, पुस्तक वितरण, मेडिकल चेकअप करवाते हैं। ‘निर्भया सवारीÓ भी इन्होंने आणंद एसपी रहते हुए शुरू की। आज पूरे गुजरात में यह लागू है।
स्कूल-कॉलेज से ही पुलिसकर्मी को देख हुए प्रेरित
गांव में स्कूल में पढ़ाई करने के दौरान पुलिस कर्मचारियों को देखते थे। उनके रुतबे को देखते थे। कॉलेज में आए तो अलवर और जयपुर एसपी को देखते। आईपीएस अधिकारी बनना ही एक ऐसा जरिया था, जिसके जरिए ज्यादा लोगों की सेवा की जा सकती है। न्याय दिलाया जा सकता है। इसी बात ने प्रेरित किया। मेहनत की और सफल हो गए। गुजरात कैडर भी उन्हें मिल गया। उनके समय कैडर पसंद करने का विकल्प नहीं था। अब गुजरात के लोगों की जी जान से सेवा करने में जुटे हैं।
गांव में स्कूल में पढ़ाई करने के दौरान पुलिस कर्मचारियों को देखते थे। उनके रुतबे को देखते थे। कॉलेज में आए तो अलवर और जयपुर एसपी को देखते। आईपीएस अधिकारी बनना ही एक ऐसा जरिया था, जिसके जरिए ज्यादा लोगों की सेवा की जा सकती है। न्याय दिलाया जा सकता है। इसी बात ने प्रेरित किया। मेहनत की और सफल हो गए। गुजरात कैडर भी उन्हें मिल गया। उनके समय कैडर पसंद करने का विकल्प नहीं था। अब गुजरात के लोगों की जी जान से सेवा करने में जुटे हैं।