1904 से बन रही समाध मंदिर या कहें समाध का निर्माण 1904 ईसवी में शुरू हुआ था। 2018 में 114 साल हो गए हैं। तभी से लगातार करीब 200 मजदूर कार्यरत हैं। करीगर कहते हैं कि वे तो हजूर महाराज की सेवा कर रहे हैं। इसी कारण आज भी चौथी पीढ़ी यहां काम कर रही है। अगर मजदूरी कर रहे होते तो कब के चले गए होते। समाध के द्वार पर एक कुआं है, जिसके जल को प्रसाद के रूप में लिया जाता है। मंदिर 110 फीट ऊंचा है।
कुआं आधारित नींव ताजमहल की तरह हजूर महाराज की समाध की नींव भी कुआं आधारित है। यह 52 कुओं पर आधारित है, ताकि भूकंप आने पर कोई प्रभाव न पड़े। पत्थरों को 60 फीट गहराई तक डालकर स्तंभ लगाए गए हैं। पत्थरों पर नक्काशी इस तरह की है कि पेंटिंग सी प्रतीत होती है। देखने वालों की आँखें आश्चर्य से फैल जाती हैं। सबको यही लगता है कि नक्कासी मशीन से की गई होगी, लेकिन ऐसा है नहीं। एक-एक पत्थर को तैयार करने में महीनों का समय लगता है। फल और सब्जी की बेल देखें तो लगता है कि अभी टपक पड़ेंगे। दो पत्थरों के बीच के जोड़ को इतनी खूबसूरती के साथ ढक दिया गया है कि दिखाई नहीं देते हैं। समाध में फोटोग्राफी निषिद्ध है। वह शायद इसलिए कि कोई बेहतरीन कारीगरी की नकल न कर ले।

कैसे होती है संगमरमर की सफाई समाध या मंदिर के निर्माण में प्रयोग हो रहा संगमरमर राजस्थान से लाया जाता है। संगमरमर पर गंदगी जमा होना स्वाभाविक है। इसकी सफाई के लिए लेजर तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। लेजर तकनीक आर्कियोलोजिकल सोसाइटी ऑफ इटली के चेयरमैन डॉ. जिनानी की देखरेख में शुरू हुई। पुर्तगाल, इंग्लैंड, इटली, फ्रांस समेत तमाम देशों में लेजर तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। ताजमहल से गंदगी साफ करने के लिए पानी की फुहार डाली जाती है।
जानिए स्वामी जी महाराज के बारे में राधास्वामी मत के संस्थापक और प्रथम गुरु परमपुरुष पूरनधनी स्वामी जी महाराज का जन्म आगरा की पन्नी गली में 25 अगस्त, 1818 को जन्माष्टमी के दिन खत्री परिवार में हुआ था। उका नाम सेठ शिवदयाल सिंह था। पिता का नाम राय दिलवाली सिंह था। छह साल की आयु में ही योगाभ्यास शुरू कर दिया। वे स्वयं को एक कमरे में कई-कई दिन तक बंद कर लेते थे। इससे उनकी ख्याति संत के रूप में फैल गई। उन्होंने हिन्दी, फारसी, उर्दू और गुरुमुखी भाषा सीखी। फारसी पर किताब भी लिखी। विवाह फरीदाबाद (हरियाणा) के राय इज्जतराय की पुत्री नारायणी देवी से हुआ। अपने प्रिय शिष्य परमपुरुष पूरनधनी हजूर महाराज के आग्रह पर वसंत पंचमी के दिन 1861 में सतसंग की स्थापना की। पहला सतसंग मोहल्ला माईथान स्थित मौज प्रकाश की धर्मशाला में हुआ। इसके बाद अनुयायी बढ़ने लगे। पन्नी गली में 17 साल तक सतसंग की अध्यक्षता की। 15 जून, 1878 को उन्होंने देह त्याग दी। उन्होंने सुरत (आत्मा) की मुक्ति के लिए राधास्वामी नाम का मंत्र दिया। सुरत शब्? योग ?? का प्रतिपादन किया। स्वामीबाग में उन्हीं की समाध का निर्माण हो रहा है, जिसे दयालबाग मंदिर के नाम से जाना जाता है। समाध के दर्शन के लिए प्रति वर्ष लाखों की संख्या में सतसंगी और पर्यटक आते हैं।