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आगरा

शाहजहां और मुमताज के बाद ये Love Story भी रही खास, ब्रिटेन की महारानी को हिन्दुस्तानी छोरे से हुआ था प्यार

आगरा से ही एक ओर मोहब्बत की कहानी शुरू हुई, जिसकी चर्चा पूरी दुनिया में रही।

आगराOct 31, 2017 / 02:05 pm

धीरेंद्र यादव

Queen victoria and Abdul karim

Queen victoria and Abdul karim

आगरा। मोहब्बत की इमारत ताजमहल प्रेम की एक ऐसी कहानी को बयां करती है, जो आज दुनिया में हर जुबां पर है, लेकिन आगरा से ही एक ओर मोहब्बत की कहानी शुरू हुई, जिसकी चर्चा पूरी दुनिया में रही। ये प्रेम कहानी थी, ब्रिटेन की महारानी क्वीन विक्टोरिया और आगरा के मोहम्मद हफीज अब्दुल करीम की। आगरा के पंचकुइयां स्थित कब्रिस्तान में अब्दुल करीम की कब्र है। अब्दुल करीम महारानी विक्टोरिया का सबकुछ बन गया था-विश्वासपात्र, गुप्त प्रेमी और हिन्दुस्तान के मामलों का सलाहकार। करीम और विक्टोरिया के संबंधों को लेकर पूरी दुनिया में चर्चा है। हॉलीवुड में विक्टोरिया एंड अब्दुल नाम की फिल्म भी बन चुकी है।
Queen victoria and Abdul karim
दिल दे बैठीं क्वीन विक्टोरिया
वरिष्ठ पत्रकार राजवी सक्सैना बताते हैं कि ब्रिटेन के राजघराने के दस्तावेजों में उनका जिक्र महारानी के सेवक के रूप में है। अब्दुल और विक्टोरिया के प्यार के संबंधों खुलासा कुछ साल पहले तब हुआ, जब अब्दुल की डायरी सामने आई, जिससे पता चला कि भारत से महारानी को उर्दू सिखाने गए गए अब्दुल करीम को किस तरह महारानी दिल दे बैठीं।
कहानी है पूरी फिल्मी
राजीव सक्सैना ने बताया कि अब्दुल करीम की कहानी काफी फिल्मी है। भारत में ब्रितानी शासनकाल के दौरान ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने 1887 में भारतीय नौकरों को एक समारोह के दौरान इंग्लैंड बुलाने का आदेश दिया। उनका मानना था कि चूंकि भारतीय नौकर हिंदुस्तानी रीतिरिवाजों से परिचित होते हैं, लिहाजा भारतीय राजघरानों से संपर्क में सहायक होंगे। आगरा के जेल सुपरिटेन्डेन्ट जॉन टाइलर ने कुछ भारतीयों को चुना, जिसमें 23 साल के असिस्टेंट क्लर्क अब्दुल करीम भी थे। चुने हुए लोगों में दो को पानी के जहाज से 1887 में इंग्लैंड भेजा गया। वह झांसी के पास ललितपुर के रहने वाले थे।
कराई गई थी ट्रेनिंग
राजीव सक्सैना ने बताया कि इग्लेंड भेजने से पहले अब्दुल कादिर की ट्रेनिंग भी कराई गई थी। उन्हें कोलकाता भेजा गया था। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उन्हें इंग्लैंड भेजा गया। बकिंघम पैलेस पहुंचने के छह महीने के भीतर ही करीम क्वीन के विश्वासपात्र हो गए। पहले दिन जब करीम समेत दोनों सेवक रानी के सामने पहुंचे तो करीम ने उनका ध्यान खींचा। कहा जा सकता है कि रानी पहली ही नजर में उन्हें पसंद करने लगीं। महारानी ने अपनी डायरी में पहले दिन की करीम से मुलाकात के बारे में लिखा। बाद में डायरी में करीम के लिए प्रशंसा के पुट बढ़ते गए। जब उनसे बड़ौदा की महारानी चिमनबाई मिलने आईं तो उन्होंने मुलाकात के दौरान अब्दुल की तारीफों के पुल बांध दिए।
ऐसे हुआ प्रेम
क्वीन विक्टोरिया को वे हिन्दुस्तानी भाषा, खान-पान के बारे में बताने और सिखाने लगे। वे महारानी को उर्दू और हिन्दी सिखा रहे थे, तो महारानी ने खासतौर पर उन्हें अंग्रेजी सिखाने की व्यवस्था की। करीम ने जिस तेजी के साथ अंग्रेजी सीखी, वो महारानी को हैरान करने के लिए काफी थी। एक समय ऐसा भी आया जब करीम के रहने के लिए अलग व्यवस्था की गई। वह खुद घोड़ागाड़ी से चलने लगे। रुतबा इतना बढ़ गया कि क्वीन ने उन्हें सीवीओ का खिताब दे दिया, जिसे रॉयल विक्टोरियन ऑर्डर में ‘कमांडर’ का खिताब कहते हैं।
प्रभावित थीं महारानी
राजवी सक्सैना ने बताया कि लिखा ये तक गया है कि लंबे कद और खूबसूरत व्यक्तित्व के धनी अब्दुल करीम की शख्सियत और व्यवहार ऐसा था कि रानी न केवल उनसे प्रभावित होती गईं बल्कि उनके करीब आती गईं। महारानी उनसे भारत से खतो-खिताबत कराने लगीं। उनके नाम के आगे मुंशी जुड़ गया। वे महारानी के भारत सचिव बन गए। महारानी अक्सर अपने दिल की बातें उन्हें खत में लिखती थीं। दोनों के बीच का रिश्ता काफ़ी भावुक था।
बेटी ने किया था विरोध
इंग्लैंड में चर्चाओं के बाजार गर्म हो गए, राजघराने के लोगों ने आपत्ति उठानी शुरू कर दीं कि एक नौकर को इतना अहम क्यों बनाया जा रहा है। महारानी की बेटी और बेटे किंग एडवर्ड सप्तम इससे खफा हो गए। उन्होंने विरोध में महारानी को पत्र भेजे कि एक नौकर को क्यों इतना आगे बढ़ाया जा रहा है फिर भी महारानी विक्टोरिया के जीवित रहते अब्दुल करीम की हैसियत कम न हो सकी।
एडवर्ड ने वापस भेजा
महारानी की मौत के बाद सन 1901 में किंग एडवर्ड उन्हें वापस भारत भेज दिया। यही नहीं करीम और महारानी के बीच हुए पत्राचार को तुरंत जब्त करके नष्ट करने का आदेश भी दिया। करीम महारानी के साथ करीब 15 साल रहे। स्वदेश लौटने के बाद वह आगरा में सेंट्रल जेल के पास, यानि जिसे आज बाग फरजाना के नाम से जाना जाता है, वहीं रहे। आगरा में उन्होंने जहां अपने आखिरी साल बिताए, वह संपत्ति महारानी ने उन्हें दी थी। 1909 में जब अब्दुल का देहांत हुआ तब वह महज 46 वर्ष के थे। उनकी कब्र पचकुइयां स्थिति कब्रिस्तान में है। यहां के मुआज्जिन ने बताया कि इस कब्र पर आज भी कई पर्यटक आते हैं।

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