जब पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव की पत्नी ‘सती’ कूदकर भस्म हो गईं, तब शिवजी विलाप करते हुए गहरी तपस्या में लीन हो गए। उनके ऐसा करने से सृष्टि शक्तिहीन हो जाती है। इस मौके का फायदा दैत्य उठाते हैं और धरती पर तारकासुर नामक दैत्य का चारों ओर आतंक फैल जाता है। देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ता है। चारों तरफ हाहाकार मच जाता है तब सभी देवता ब्रह्माजी से प्रार्थना करते हैं। तब ब्रह्माजी कहते हैं कि तारक का अंत शिव पुत्र करेगा। इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शंकर ‘पार्वती’ के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिवजी और पार्वती का विवाह हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है।कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं। पुराणों के अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष महत्व है।
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार प्रथम पूज्य देव होने की प्रतियोगिता में छोटे भाई गणेश के जीत जाने पर गुस्से में भगवान शिव व देवी पार्वती के बड़े पुत्र कार्तिकेय तपस्या करने क्रांउस पर्वत पर चले गए थे। जब उन्हें मनाने के लिए ढूंढ़ते हुए जब शिव-पार्वती पहुंचे तो कुमार कार्तिकेय ने शाप दिया था कि स्त्री दर्शन करेंगी तो सात जन्म वह विधवा रहेंगी। शंकर-पार्वती ने आग्रह किया कि कोई ऐसा दिन हो जब आपके दर्शन हो सकें। तब कार्तिकेय का गुस्सा शांत हुआ, और उन्होंने सिर्फ एक दिन अपने भक्तों को दर्शन के लिए निर्धारित किया। कुमार कार्तिकेय ने कहा कि जन्म के दिन पूर्णिमा को जो दर्शन करेगा, उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। इस कारण ही उनके दर्शन साल में एक बार ही होते हैं।