भक्त कबीर जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?
फकीर ने जितना कपड़ा मांगा, इत्तफाक से भक्त कबीर जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था। कबीर जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।
दान करने के बाद जब कबीर जी घर लौटने लगे तो उनके सामने अपनी माँ नीमा, वृद्ध पिता नीरू, छोटे बच्चे कमाल और कमाली के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर लोई जी की कही बात कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी कमाल और कमाली के लिए तो कुछ ले आना। अब दाम तो क्या, थान भी दान जा चुका था।
भक्त कबीर जी गंगा तट पर आ गए। जैसी मेरे राम की इच्छा। जब सारी सृष्टि की सार खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
अब भगवान कहां रुकने वाले थे। भक्त कबीर जी ने सारे परिवार की जिम्मेदारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।
अब भगवान जी ने भक्त कबीर जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
माता लोई जी ने पूछा- कौन है?
कबीर का घर यही है ना ?भगवान जी ने पूछा।
माता लोई जी- हांजी! लेकिन आप कौन?
भगवान जी ने कहा – सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?
जैसे कबीर राम का सेवक, वैसे ही मैं कबीर का सेवक। ये राशन का सामान रखवा लो।
माता लोई जी ने दरवाजा पूरा खोल दिया।
फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई। इतना सामान! कबीर जी ने भेजा है? मुझे नहीं लगता। माता लोई जी ने पूछा।
भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज कबीर का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो कबीर का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है। जगह और बना। सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।
शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।
समान रखवाते-रखवाते लोई जी थक चुकी थीं। नीरू ओर नीमा घर में अमीरी आते देख खुश थे। कमाल ओर कमाली कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।
कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।
उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।
भक्त कबीर जी अभी तक घर नहीं आये थे, पर सामान आना लगातार जारी था।
आखिर लोई जी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान कबीर जी के आने के बाद ही आप ले आना। हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकि वो अभी तक घर नहीं आए हैं।
भगवान जी बोले- वो तो गंगा किनारे भजन-सिमरन कर रहे हैं।
फिर नीरू और नीमा, लोई जी, कमाल ओर कमाली को लेकर गंगा किनारे आ गए।
उन्होंने कबीर जी को समाधि से उठाया।
सब परिवार वालों को सामने देखकर कबीर जी सोचने लगे,
जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ रहे हैं।
फकीर ने जितना कपड़ा मांगा, इत्तफाक से भक्त कबीर जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था। कबीर जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।
दान करने के बाद जब कबीर जी घर लौटने लगे तो उनके सामने अपनी माँ नीमा, वृद्ध पिता नीरू, छोटे बच्चे कमाल और कमाली के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर लोई जी की कही बात कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी कमाल और कमाली के लिए तो कुछ ले आना। अब दाम तो क्या, थान भी दान जा चुका था।
भक्त कबीर जी गंगा तट पर आ गए। जैसी मेरे राम की इच्छा। जब सारी सृष्टि की सार खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
अब भगवान कहां रुकने वाले थे। भक्त कबीर जी ने सारे परिवार की जिम्मेदारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।
अब भगवान जी ने भक्त कबीर जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
माता लोई जी ने पूछा- कौन है?
कबीर का घर यही है ना ?भगवान जी ने पूछा।
माता लोई जी- हांजी! लेकिन आप कौन?
भगवान जी ने कहा – सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?
जैसे कबीर राम का सेवक, वैसे ही मैं कबीर का सेवक। ये राशन का सामान रखवा लो।
माता लोई जी ने दरवाजा पूरा खोल दिया।
फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई। इतना सामान! कबीर जी ने भेजा है? मुझे नहीं लगता। माता लोई जी ने पूछा।
भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज कबीर का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो कबीर का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है। जगह और बना। सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।
शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।
समान रखवाते-रखवाते लोई जी थक चुकी थीं। नीरू ओर नीमा घर में अमीरी आते देख खुश थे। कमाल ओर कमाली कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।
कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।
उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।
भक्त कबीर जी अभी तक घर नहीं आये थे, पर सामान आना लगातार जारी था।
आखिर लोई जी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान कबीर जी के आने के बाद ही आप ले आना। हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकि वो अभी तक घर नहीं आए हैं।
भगवान जी बोले- वो तो गंगा किनारे भजन-सिमरन कर रहे हैं।
फिर नीरू और नीमा, लोई जी, कमाल ओर कमाली को लेकर गंगा किनारे आ गए।
उन्होंने कबीर जी को समाधि से उठाया।
सब परिवार वालों को सामने देखकर कबीर जी सोचने लगे,
जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ रहे हैं।
इससे पहले कि भक्त कबीर जी कुछ बोलते, उनकी माँ नीमा जी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे। अगर थान अच्छे भाव बिक गया था, तो सारा सामान तूने आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?
भक्त कबीर जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए। फिर माता-पिता, लोई जी और बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया कि जरूर मेरे राम ने कोई खेल कर दिया है।
लोई जी ने शिकायत की- अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे फेंकने से रुकता ही नहीं था। पता नहीं कितने वर्षों तक का राशन दे गया। उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी कबीर जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।
भक्त कबीर जी हँसने लगे और बोले- लोई जी! वो सरकार है ही ऐसी। जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं। उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती। उस सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है। तभी तो कबीरदास जी ने लिखा है-
भक्त कबीर जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए। फिर माता-पिता, लोई जी और बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया कि जरूर मेरे राम ने कोई खेल कर दिया है।
लोई जी ने शिकायत की- अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे फेंकने से रुकता ही नहीं था। पता नहीं कितने वर्षों तक का राशन दे गया। उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी कबीर जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।
भक्त कबीर जी हँसने लगे और बोले- लोई जी! वो सरकार है ही ऐसी। जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं। उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती। उस सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है। तभी तो कबीरदास जी ने लिखा है-
कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर।
पाछे पाछे हरि फिरै कहत कबीर कबीर॥
सीख
कमी तो सिर्फ और सिर्फ हमारे अंदर ही है। हमें अपने सतगुरु पर पूरा विश्वास ही नहीं है। यदि हम अपने सतगुरु पर पूरा विश्वास रखेंगे, तो फिर हमें कभी भी और किसी भी तरह की कमी नहीं रहेगी।
पाछे पाछे हरि फिरै कहत कबीर कबीर॥
सीख
कमी तो सिर्फ और सिर्फ हमारे अंदर ही है। हमें अपने सतगुरु पर पूरा विश्वास ही नहीं है। यदि हम अपने सतगुरु पर पूरा विश्वास रखेंगे, तो फिर हमें कभी भी और किसी भी तरह की कमी नहीं रहेगी।
प्रस्तुतिः हरिहरपुरी मठ प्रशासक, श्रीमनकामेश्वर मंदिर, आगरा