उन्होंने बताया कि गर्मी बढ़ने के साथ रेबीज के मामले जिला अस्पताल में पहुंचने लगते हैं। इन मामलों को लोग अपनी थोड़ी सी समझदारी और जागरूकता से रोक सकते हैं। पहले हर घर में श्वान के लिए रोटी निकलती थी। घर के बाहर जानवरों के लिए पानी रखा जाता था। गर्मी में जब देसी श्वान भूख और प्यास से परेशान हो जाते हैं, तो थोड़ा आक्रामक हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि वह संस्था के सदस्यों के साथ अब तक शहर की लगभग 7 कॉलोनी में श्वानों को रेबीज वैक्सीन लगा चुकी हैं। नार्थ ईदगाह कॉलोनी के सदस्यों का बहुत सहयोग मिला लेकिन ज्यादातर लोग शिवानों के वैक्सीनेशन व नसबंदी के मामलों में सहयोग नहीं करते।
इस मौके पर मौजूद पीपुल फॉर एनीमल के निदेशक डॉ. सुरत गुप्ता ने कहा कि हर बात के लिए सरकार की ओर देखने के बजाय लोगों को खुद भी जागरूक होना चाहिए। श्वानों को मारना या दुत्कारना इस समस्या का हल नहीं। कैस्पर्स होम द्वारा शहर के मोहल्ले और कॉलोनियों में श्वानों से सुरक्षित रहने के लिए पेम्फ्लेट भी बांटे जाएंगे। इस अवसर पर मोना मखीजा, अंकित वासवानी, कनिका वर्मा, अनुकृति विकास गुप्ता, अंकित शर्मा, डिम्पी, माल्विका, अजय शर्मा, सोहिता दीक्षित आदि मौजूद थे।
विनीता अरोरा ने बताया कि अंग्रेजों ने अपनी विदेशी नस्लों का व्यापार शुरू किया। उपहार में यह विदेशी नस्ल के श्वानों को राजाओं और नवाबों को देने लगे। इस कारण 1866 में भारतीय श्वान स्ट्रे (stray dogs) कहलाने लगे और संख्या बढ़ने पर इन्हें मारने का हुक्म दे दिया गया। अंग्रेजी राज से पहले भारतीय नस्ल के श्वान ही लोग घरों में भी पालते थे। लेकिन अंग्रेजों ने इन्हें अपनी भारतीय ब्रीड से सड़कों पर पहुंचा कर आवारा बना दिया। यह सोच आज तक कोड़ की तरह फैली है।