यहां तक कि अपनी मौत के दिन भी काका ने किसी को रोने नहीं दिया। काका ने अपनी वसीयत में लिखा था कि वे चाहते हैं कि उनके जाने पर कोई रोए नहीं बल्कि सभी हंसी के ठहाके लगाएं। इसलिए जब श्मशान में काका की चिता जल रही थी तो उस दिन वहां विशाल हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। उनके शव को ऊंटगाड़ी पर रखकर आधी रात को श्मशान में ले जाया गया और फिर वहां हास्य कवि सम्मेलन हुआ। यह एक संयोग मात्र ही था कि जिस दिन काका का जन्म हुआ उसी दिन उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। 18 सितंबर 1906 को जन्मे हास्य व्यंग्य का प्रतिरूप कवि काका हाथरसी 18 सितंबर 1995 को दुनिया से रुखसत हो गए।
कैसे बने प्रभुलाल गर्ग से काका
हाथरस शहर में जैन की गली में जन्मे प्रभुलाल गर्ग बचपन से ही तमाम प्रतिभाओं से संपन्न थे।
बचपन में उन्होंने एक नाटक में काका का अभिनय किया। बस तभी से लोग उन्हें काका हाथरसी बुलाने लगे। कुछ समय बाद उनकी शादी रतन देवी से हो गई। रतन देवी हमेशा काका की कविताओं में काकी के रूप में छाई रहीं।
हाथरस शहर में जैन की गली में जन्मे प्रभुलाल गर्ग बचपन से ही तमाम प्रतिभाओं से संपन्न थे।
बचपन में उन्होंने एक नाटक में काका का अभिनय किया। बस तभी से लोग उन्हें काका हाथरसी बुलाने लगे। कुछ समय बाद उनकी शादी रतन देवी से हो गई। रतन देवी हमेशा काका की कविताओं में काकी के रूप में छाई रहीं।
बचपन से ही था हास्य का गुण
काका का बचपन काफी संघर्षों में बीता। पिता की जल्दी मौत होने के बाद वह अपनी ननिहाल इगलास चले गए और वहां पढ़ने लगे। गरीबी में काका ने चाट-पकौड़ी तक बेची। हास्य का गुण उनमें बचपन से ही मौजूद था। बचपन में उन्होंने अपने पड़ोस के वकील पर एक कविता लिख दी। वो कविता उन वकील के हाथ लग गई। उसके कविता के इनाम स्वरूप काका को पिटाई मिली थी।
काका का बचपन काफी संघर्षों में बीता। पिता की जल्दी मौत होने के बाद वह अपनी ननिहाल इगलास चले गए और वहां पढ़ने लगे। गरीबी में काका ने चाट-पकौड़ी तक बेची। हास्य का गुण उनमें बचपन से ही मौजूद था। बचपन में उन्होंने अपने पड़ोस के वकील पर एक कविता लिख दी। वो कविता उन वकील के हाथ लग गई। उसके कविता के इनाम स्वरूप काका को पिटाई मिली थी।
ऐसे शुरु हुआ लेखन का सफर किशोरावस्था में काका इगलास से हाथरस वापस आ गए थे और यहां आकर नौकरी करने लगे। लेकिन कुछ दिन बाद नौकरी छूट गई। काका चित्रकला में भी काफी दक्ष थे। उन्होंने चित्रशाला भी चलाई, लेकिन वह भी नहीं चली। उन्हें संगीत का भी काफी ज्ञान था। इसके बाद उन्होंने संगीत नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसका प्रकाशन अभी भी हो रहा है। लेकिन इन सब उतार चढाव के बीच उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। कुछ समय बाद उनकी पहली कविता घुटा करती हैं मेरी हसरतें, इलाहबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका गुलदस्ता में छपी। इसके बाद काका ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1957 में लाल किले पर हुए कवि सम्मेलन में काका को जब बुलावा आया तो काका ने अपनी शैली में काव्यपाठ किया। 1966 में ब्रजकला केंद्र के कार्यक्रम में काका को सम्मानित किया गया। 1985 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने काका को पद्मश्री से सम्मानित किया। 1989 में काका को अमेरिका के वाल्टीमौर में आनरेरी सिटीजन का सम्मान मिला।
काका की रचनाएं
आई मैं आ गए, कॉलेज स्टूडेंट, नाम बड़े दर्शन छोटे, नगरपालिका वर्णन, नाम रूप का भेद, जम और जमाई, दहेज की बारात, हिंदी की दुर्दशा, पुलिस महिमा, घूम माहात्म्य, सुरा समर्थन, मोटी पत्नी, पंचभूत, पिल्ला, तेली कौ ब्याह, मुर्गी और नेता, कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ, भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार, एयर कंडीशन नेता, खटमल, मच्छर युद्ध, सारे जहां से अच्छा।
कविता संग्रह
काका की फुलझड़िया, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि, खिलखिलाहट, काका तरंग, जय बोलो बेईमान की, यार सप्तक, काका के व्यंग्य बाण।