आठ अगस्त 1942 को अगस्त क्रांति शुरू होने के बाद आजादी की ये चिंगारी भड़कने लगी। आंदोलन की शुरुआत मुंबई में हुई थी, लेकिन अंग्रेजों को ये अंदाजा नहीं था, कि आगरा में इतना बड़ा कांड हो सकता है। ये बात 14 अगस्त 1942 की है। आस पास के गांव के करीब 1 हजार युवा एकत्र होकर बरहन रेलवे स्टेशन पहुंचे। अलग-अलग टुकड़ियों में इन युवाओं ने सबसे पहले वहां की संचार व्यवस्था भंग की। टेलीफोन के तार काट डाले। रेल की पटरियां उखाड़ने के बाद स्टेशन में आग लगा दी। स्टेशन को फूंकने के बाद युवकों का समूह बरहन कस्बे की ओर चल पड़ा। वहां सरकारी बीज गोदाम पर धावा बोल दिया। वहां पर कई मन गल्ला और बीज निकालकर अभाव ग्रस्त लोगों को बांट दिया। डाकघर को भी क्षतिग्रस्त कर दिया। कई घंटे तक हुए इस तांडव की सूचना जब अंग्रेज अधिकारियों को हुई, तो उनके पसीने छूट गए। पुलिस फोर्स मौके की और दोड़ पड़ा। मौके पर पहुंचकर पुलिस ने इन युवाओं पर गोलियां बरसाना शुरू कर दी, जिसमें बैनई गांव के केवल सिंह जाटव शहीद हो गए। इस फायरिंग में कई आंदोलनकारी घायल भी हुए थे।
28 अगस्त 1942 को कुछ चमरौला रेलवे स्टेशन पर होने वाला है, इस बात की भनक गोरी हुकूमत को लग चुकी थी। इसे लेकर पुलिस सतर्क थी। इसी दिवस सुबह के समय सीताराम गर्ग और श्रीराम आभीर के नेतृत्व में चमरौला रेलवे स्टेशन पर हमला बोल दिया। लेकिन इस कांड की पूर्व सूचना होने के चलते एसएसी (अब पीएसी) के जवान छिप कर तैनात थे। जैसे ही किशन लाल स्वर्णकार ने स्टेशन के दफ्तर पर मिंट्टी का तेल छिड़ककर उसमें आग लगाने के लिए माचिस जलाई। पुलिस के एक जवान ने बंदूक से निशाना साधकर गोली दाग दी। इससे किशनलाल की कई उंगलियां उड़ गईं। पुलिस की फायरिंग में साहब सिंह, खजान सिंह, सोरन सिंह घटना स्थल पर ही शहीद हो गए। सीताराम गर्ग, किशनलाल, सोहनलाल गुप्ता, प्यारेलाल, डूमर सिंह, बाबूराम घायल हो गए। अंग्रेज अधिकारी तीनों शहीदों के शव और घायल उल्फत सिंह को रेल के इंजन में लेकर टूंडला पहुंचे। रास्ते में उल्फत सिंह भी भारत माता के चरणों में शहीद हो गए। ये चारों शहीद 19-20 वर्ष के थे।