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‘धर्म’और’अधर्म’की लड़ाई, इस्लाम में भी लड़ी गई थी,इमाम हुसैन समेत 72 लोगों ने दी थी कुर्बानी

Real Story of Muharram 2024: इराक के करबला में इमाम हुसैन की शहादत और मुहर्रम के पीछे की कहानी विश्वविख्यात इस्लामिक स्काॅलर पद्म श्री प्रोफेसर अख्तरुल वासे से जानिए

नई दिल्लीJul 22, 2024 / 11:26 am

M I Zahir

Muharram and Karbala

Real Story of Muharram : सत्य और असत्य व धर्म और अधर्म की लड़ाई हर जगह लड़ी गई है । इसका सबसे बड़ा उदाहरण करबला है। इराक के करबला में पैगंबर हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन ( Imam Hussain) और करबला के शहीदों की याद में मातमी मुहर्रम मनाया जाता है। यह लड़ाई सीरिया से यजीद की सेना के बीच थी, जो कूफा से आए सैनिकों से प्रबलित थी, और इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन के परिवारों और साथियों के कारवां के बीच थी।

अली असगर शहीद

ऐसा उल्लेख मिलता है कि हुसैन के साथियों में से 72 पुरुष (हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर सहित) यज़ीद प्रथम की सेना ने शहीद कर दिए थे। विश्वविख्यात इस्लामिक स्काॅलर पद्म श्री प्रोफेसर अख्तरुल वासे ( Akhtarul Wase) से इमाम हुसैन की शहादत, करबला और मुहर्रम की कहानी जानिए :

क़ुर्बानी से जुड़ा हुआ रिश्ता

प्रोफेसर अख्तरुल वासे ने बताया कि इस्लामी कैलेण्डर हिजरी सन में पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब के मक्के से मदीने की ओर हिजरत (गमन) करने से शुरू होता है। वर्तमान में इस्लामी हिजरी सन् 1446 चल रहा है। यह अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि इस्लामी कैलेण्डर (हिजरी सन्) का पहला महीना मुहर्रम और आख़िरी महीना ज़िल्हिज (हज का महीना) दोनों का रिश्ता एक-एक क़ुर्बानी से जुड़ा हुआ है। ज़िल्हिज में हज़रत इब्राहीम के बेटे इस्माईल की क़ुर्बानी को याद किया जाता है और उसका अनुसरण करते हुए दुनिया भर के मुसलमान जानवर की कुर्बानी करते हैं। क्योंकि ईश्वर ने जब बाप-बेटे को इस परीक्षा में कामयाब पाया तो इस्माईल की जगह एक पशु को भेज कर उसकी कुर्बानी करवा दी।

क्या है आशूरा और हिजरी?

उन्होंने बताया कि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे हज़रत इमाम हुसैन करबला (इराक़ का शहर) में मुहर्रम की 10 तारीख़ (जिसे यौमे आशूरा कहा जाता है) के दिन शहीद हुए। मुहर्रम का महीना क़ुर्बानी का महीना है। इमाम हुसैन से उस वक़्त का शासक यज़ीद यह चाहता था कि वे उसके स्वामित्व को स्वीकार करें, उसके शासन को सही मानें, लेकिन क्योंकि यज़ीद इस्लाम धर्म में शासक और शासन के लिए निर्धारित मापदण्डों पर पूरा नहीं उतरता था, इसलिए इमाम हुसैन और उनके समर्थक इसके लिए तैयार नहीं थे। वे पहले मदीने से मक्के की तरफ़ चले आए, ताकि मदीना जो उनके नाना का नगर था, वहां पर कोई बवाल पैदा ना हो।

यज़ीद की फ़ौजों ने घेर लिया

वे कहते हैं, इमाम हुसैन को यह विश्वास था कि मक्का, जो शांति का प्रतीक नगर था और जहाँ किसी भी जीव-जन्तु को मारना निषेध था, वहां पर वे शांति से रह सकेंगे, लेकिन मक्का पहुंच कर कुछ दिनों में ही उन्हें आभास हो गया कि सत्ताधारी पक्ष उन्हें सताने के लिए मक्का की गरिमा को भी क्षति पहुंचा सकते हैं। इसके बाद वे वहां से भी अपने प्रियजनों और समर्थकों के साथ कूफ़े (इराक़ का एक शहर) की तरफ़ चल दिए, क्योंकि वहां से बार-बार बुलावा आ रहा था, लेकिन उन्हें करबला नामी जगह के पास यज़ीद की फ़ौजों ने घेर लिया।

इमाम हुसैन ने जंग टालने का आग्रह किया

प्रोफेसर अख्तरुल वासे ( Akhtarul Wase) ने बताया कि इमाम हुसैन ने जंग टालने के लिए यह आग्रह भी किया कि उन्हें भारत की तरफ़ जाने दिया जाए, लेकिन दुश्मनों ने एक बात भी ना मानी और इमाम हुसैन और उनके साथियों को जंग करने पर मजबूर कर दिया। यहां यह बात स्पष्ट भी रहनी चाहिए कि इमाम हुसैन जंग के लिए घर से नहीं निकले थे। अगर ऐसा होता तो वे पैग़ंबर साहब के घराने की उन बीवियों को लेकर मैदाने जंग में न आते, जिनके पावन शरीर को कभी आसमान ने भी नहीं देखा था। जंग के मैदान में कोई अपने दूध पीते बच्चे और बीमार बेटे को लेकर नहीं आता।

जंग ज़बरदस्ती थोपी गई थी

प्रोफेसर कहते हैं, यह जंग उन पर ज़बरदस्ती थोपी गई थी और उन पर पानी भी बंद कर दिया गया था। जंग से पहले हज़रत इमाम हुसैन ने जो भाषण दिया था, उसमें एक बार फिर जंग को टालने की इच्छा जताई थी, लेकिन विरोधियों के कान पर जूं तक ना रेंगी और मुहर्रम की 10 तारीख़ को इमाम हुसैन को शहीद कर दिया गया। उनसे पहले उनके वंशज से जुड़े लोगों और उनके समर्थकों को भी शहीद किया जा चुका था।

*इमाम हुसैन से मुहर्रम का संबंध

उन्होंने बताया कि इमाम हुसैन ने करबला के मैदान में अपना सर कटवा दिया, लेकिन बुराई और यज़ीद के शासन का समर्थन करने के लिए उसके हाथ में अपना हाथ नहीं दिया और इस तरह वे अपने उद्देश्य में सफल रहे और यज़ीद नाकाम रहा। ग़रीब नवाज़ हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी ने इसी वास्तविकता को काव्य के रूप में यूँ बयान किया है :
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन,
दीं अस्त हुसैन, दीं पनाह अस्त हुसैन,
सर दाद न दाद, दस्त दर दस्ते यज़ीद,
हक़्क़ा कि बिनाए ला इलाह अस्त हुसैन।

(हुसैन शाह हैं, हुसैन बादशाह हैं। हुसैन धर्म हैं और धर्म को शरण देने वाले भी हुसैन हैं। उन्होंने अपना सर कटवा दिया, लेकिन यज़ीद के हाथ पर उसके शासन का अनुमोदन नहीं किया। सच यह है कि ला इलाह (यानी अल्लाह के अलावा कोई सर झुकाने के योग्य नहीं) की नींव की रक्षा करने वाले भी हुसैन हैं।)

क्यों मनाते हैं मुहर्रम?

प्रोफेसर अख्तरुल वासे ने बताया कि दुनिया में इमाम हुसैन और उनके समर्थकों के बलिदान को चौदह सौ साल से दुनिया भर में हर साल मुहर्रम के रूप में मनाया जाता है। हिन्दुस्तान में भी धर्म, क्षेत्र और भाषा से ऊपर उठ कर इमाम हुसैन को याद किया जाता है, उनकी शहादत पर मातम किया जाता है और ख़ुद हिन्दुओं में ब्राह्मणों की एक गोत्र ‘‘दत्त’’ में हुसैनी ब्राह्मण भी पाये जाते हैं।

काव्य में शोक-गीत

उन्होंने बताया कि उर्दू काव्य में मर्सिया (शोक-गीत) के अलावा दूसरी भाषाओं और बोलियों में भी एक बड़ा संग्रह मिलता है और उसकी विशेषता यह है कि वह दुखद घटना जो कभी इराक़ में कभी फ़रात नदी के किनारे घटी थी, उसे गोमती नदी के किनारे हिन्दुस्तानी कवियों ने इस तरह दर्शाया है कि भारतीय रीति-रिवाज उसमें समा गए हैं। इमाम हुसैन और उनके सहयोगियों की शहादत हमारे विवेक में इस तरह रम गई है कि सैदानियां (सय्यद घराने की औरतें) जब किसी को दुआ भी देती हैं तो यही कहती हैं कि ‘‘ख़ुदा तुम्हें ग़मे-हुसैन के अलावा कोई दूसरा ग़म ना दे।’’
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