सवाईमाधोपुर. भारत के इतिहास में राव हम्मीरदेव चौहान को वीरता के साथ ही उनकी हठ के लिए भी याद किया जाता है। उनकी हठ के विषय में यह दोहा प्रसिद्ध है…
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है। सच्चे लोग बात को एक ही बार कहते है। केला एक ही बार फलता है। स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है। ऐसी ही राव हम्मीरदेव चौहान की हठ थी। वह जो ठानते थे, उस पर दुबारा विचार नहीं करते थे। राजकीय शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय सवाईमाधोपुर के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन ने उनके इतिहास का बारीकी से अध्ययन किया। उनके अनुसार पृथ्वीराज चौहान के बाद चौहानों के इतिहास में राजा हमीर देव चौहान ही महान व्यक्तिव, आन बान वाला साहसी व् तेजस्वी महान योद्धा था।
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है। सच्चे लोग बात को एक ही बार कहते है। केला एक ही बार फलता है। स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है। ऐसी ही राव हम्मीरदेव चौहान की हठ थी। वह जो ठानते थे, उस पर दुबारा विचार नहीं करते थे। राजकीय शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय सवाईमाधोपुर के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन ने उनके इतिहास का बारीकी से अध्ययन किया। उनके अनुसार पृथ्वीराज चौहान के बाद चौहानों के इतिहास में राजा हमीर देव चौहान ही महान व्यक्तिव, आन बान वाला साहसी व् तेजस्वी महान योद्धा था।
पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुर से लगभग 13 किलोमीटर दूर रणथम्भौर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक विकट, अजेय ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भौर चौहान राजाओं का एक प्रमुख साम्राज्य रहा है। हमीर देव चौहान का जन्म 7 जुलाई 1272 को चौहान वंशी राजा जैत्र सिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वत मालाओं से घिरे रणथम्भौर दुर्ग में हुआ था। इनकी माता का नाम हीरा देवी था।
बालक हम्मीरदेव इतना वीर था कि तलवार के एक ही प्रहार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था। उसकी वीरता से प्रभावित होकर राव जैत्र सिंह ने अपने जीवन काल में ही 16 दिसंबर 1282 को उनका राज्यभिषेक कर दिया था। इसका शासन 1281 से 1301 तक रहा था। गद्दी पर बैठने के बाद हम्मीर ने दिग्विजय प्राप्त की। आबू, काठियावाड़, पुष्कर, चम्पा तथा धार आदि राज्यों को इन्होंने अपनी अधीनता मानने के लिए बाध्य किया।
मेवाड़ के शासक समरसिंह को परास्त करके उसने अपनी धाक राजपूताने में भी जमा दी उसके बाद उसने 128 8 में अपने कुल पुरोहित विश्वरूपा की देख रेख में कोटि यज्ञ किया। 1290ई. में दिल्ली सल्तनत में वंश परिवर्तन हुआ और जलालुद्दीन खिलजी शासक बना। उसने रणथम्भौर की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए 1290 ई0 में कूच किया।
दुर्ग की दुर्भेद्यता और रक्षात्मक तैयारियों को देख कर तथा सभी अथक प्रयासों के बाद भी सफलता न मिलने पर निराश वह 2जून 1291 ई. को वापस दिल्ली लौट गया। इसके दिल्ली लौटते ही रणथम्भौर के शासक हमीर देव चौहान ने झाइन व आधुनिक छान पर कब्जा कर लिया। पुन: 1292ई. में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने हमीर पर चढाई की किन्तु इस बार भी विफल रहा। जलालुद्दीन खिलजी को कत्ल कर उसका भतीजा एवं जमाता अल्लाउद्दीन खिलजी1296 ई. में दिल्ली का सुल्तान बन गया था।
उसने अपने सेनापति उलूगखां और नुसरतखां को गुजरात विजय करने हेतु भेजा जब इनकी सेना वापस लौट रही थी तो जालोर के पास बगावत हो गई। बागी दल के नेता सेनापति मीर मोहम्मदशाह और उसका भाई मीर गाभरू भागकर रणथम्भौर के राजा हमीर देव चौहान की शरण में आ गए। अलाउदीन खिलजी ने भी अपने बागी सैनिकों को हमीर देव चौहान से वापस मांगा किन्तु नहीं दिया।
इस पर सुलतान खिलजी ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु सेनापति अलगाखां को सन् 1299 से1300 ई. की सर्दी में रणथम्भौर पर आक्रमण करने भेजा लेकिन किले की घेरेबंदी करते समय हमीर के सैनिकों द्वारा दुर्ग से की गई पत्थर वर्षा से वह मारा गया। इस पर कु्रद्ध हो अलाउद्दीन स्वयं 1301 में रणथम्भौर पर चढ़ाई को आया तथा विशाल सेना के साथ दुर्ग को घेर लिया। पराक्रमी हम्मीर ने इस आक्रमण का जोरदार मुकाबला किया।
रणथम्भौर का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला। अंतत: खिलजी ने छल और कूटनीति का आश्रय लिया तथा हम्मीर के दो मंत्रियों रतिपाल और रणमल को बूंदी का परगना इनायत करने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। इस विश्वासघात के फलस्वरूप हम्मीर को पराजय का मुख देखना पड़ा। अंतत: उसने केसरिया करने की ठानी। दुर्ग की ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया।
कहा जाता है कि रणथम्भोर में हमीर की सेनाओं की पराजय होते देख इस दौरान महारानी रंगादेवी, पुत्री देवल देवी एवं 12 हजार वीरांगनाओं ने अपने मान-सम्मान की रक्षा के लिए जौहर किया। राव हम्मीर अपने कुछ विश्वस्त सामंतों तथा महमाँशाह सहित दुर्ग से बाहर आ शत्रु सेना से युद्ध करते हुए 29 वर्ष की अल्प आयु में 11 जुलाई 1301 को वे वीरगति को प्राप्त हुए।
जुलाई 1301 ई. में रणथंभोर पर अलाउदीन खिलजी का अधिकार हो गया। हमीर ने अपने जीवन काल में 17 युद्ध किए, जिनमें 16 में उन्हें सफलता मिली। रणथम्भौर की प्राचीरें आज भी उनके शौर्य की गाथा गाती है। वे अपने बलिदान के लिए लोगों के बीच हमेशा अमर रहेंगे।