“नहीं पुत्र! तुम चले गए तो मेरा क्या होगा? इस अयोध्या का क्या होगा? इस वृद्धावस्था में पुत्र का वियोग नहीं सह सकूंगा मैं! मुझ पर दया करो राम, मत जाओ…”
“मैं यदि वन नहीं गया तो भविष्य यही कहेगा कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ अपने पुत्र को इस योग्य भी नहीं बना सके कि वह पिता की प्रतिष्ठा का मूल्य समझ सकता। आपकी प्रतिष्ठा के लिए राम असंख्य बार अपने प्राणों की आहुति दे सकता है, यह वनवास तो अत्यंत सहज है पिताश्री। आप चिंतित न हों, और मुझे आज्ञा दें।”
मैं तुम्हे आज्ञा नहीं दे सकता प्रिय! तुम्हारा बनवास तुम्हारे पिता की इच्छा नहीं है, बल्कि इस मतिशून्य कैकई का षड्यंत्र है। तुम्हारा जाना आवश्यक नहीं है।”
“माता को दिए गए आपके वचन का मूल्य मैं खूब समझता हूं पिताश्री! वह पूर्ण होना ही चाहिए। यदि अयोध्या का युवराज ही पिता के वचन की अवहेलना करने लगे, तो सामान्य जन सम्बन्धों का सम्मान करना ही भूल जाएंगे। इस संस्कृति का नाश हो जाएगा पिताश्री! मेरा वनवास इस युग के लिए आवश्यक है, मुझे जाने दीजिये।”
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“तुम चले गए तो यह राजकुल बिखर जाएगा पुत्र! यह परिवार इस भीषण विपत्ति को सह नहीं पायेगा। चौदह वर्ष बाद जब तुम लौटोगे तो यहां उदास खंडहरों के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। मत जाओ पुत्र, मत जाओ…”
“कठोर होइये पिताश्री! आप अयोध्यानरेश हैं। आपके समान तपस्वी सम्राट के पुत्र को यदि लम्बी वन यात्रा करनी पड़ रही है, तो यह यात्रा अशुभ के लिए नहीं बल्कि शुभ के लिए ही होगी। सज्जनों के समक्ष आने वाली विपत्ति वस्तुतः किसी अन्य बड़ी उपलब्धि के द्वार खोलने आती है। कौन जाने, नियति इस बहाने कौन सा धर्म काज कराना चाहती है! और इस परिवार को बांध कर रखने के लिए आप हैं, मेरा भरत है, मेरी माताएं हैं… मुझे स्वयं से अधिक अपने प्रिय अनुजों पर भरोसा है पिताश्री, वे मेरी अनुपस्थिति में अयोध्या को थाम लेंगे। कुछ नहीं बिखरेगा, सब बना रहेगा!”
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दशरथ समझ गए कि राम नहीं मानेंगे। उनकी आंखें लगातार बह रही थीं। वे चुप हो गए। राम ने उनके चरणों में शीश नवाया, फिर माता कैकई के पैर पड़े और कक्ष से निकल गए।
राम को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा करनी थी, सो वे अपने सभी बड़ों से मिल कर आशीर्वाद लेने लगे। वे जानते थे, माता-पिता के सम्मान के लिए स्वीकार की गई विपत्ति भी संतान का अहित नहीं करती, बल्कि अंततः लाभ ही देती है। वे यह भी जानते थे कि जबतक कोई युवराज सामान्य नागरिक की भांति अपने समूचे देश का भ्रमण न कर ले, वह कभी भी अच्छा शासक नहीं बन सकता। लोक का नायक बनने के लिए पहले लोक को ढंग से समझना पड़ता है, उसका हिस्सा बनना पड़ता है। राम अपनी उसी यात्रा पर निकल रहे थे।
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राम जब अपने कक्ष में पहुंचे तो सिया ने पूछा, “विवाह का पहला वचन स्मरण है प्रभु? तनिक बताइये तो, क्या था?”
“स्मरण है सिया! यही कि अपने जीवन के समस्त धर्मकार्यों में मैं तुम्हें अपने साथ रखूंगा। तुम्हारे बिना कोई अनुष्ठान नहीं करूंगा।”
“फिर इस तीर्थयात्रा में अकेले कैसे निकल रहे हैं प्रभु? यह तप क्या अकेले ही करेंगे?” सिया के अधरों पर एक शांत मुस्कान पसरी थी।
राम भी मुस्कुरा उठे। कहा, “आपके बिना तो कोई यात्रा सम्भव नहीं देवी। चलिये, चौदह वर्ष की इस महायात्रा के कंटीले पथ पर अपने चरणों के रक्त से सभ्यता के सूत्र लिखते हैं। पीड़ा के पथ पर जबतक सिया संगीनी न हों तबतक किसी राम की यात्रा पूरी नहीं होती।”
दोनों मुस्कुरा उठे। उस मुस्कान में प्रेम था, केवल प्रेम…