1- नियमभंग की बाधा- जब भी आप ईष्ट के प्रति कोई नियम लोगे तो संसार आपके उस नियम को येनकेन प्रकारेण खंडित करने का प्रयास करेगा! जैसे किसी ने नियम लिया की वो एकादशी को कुछ भी नही खायेगा तो फिर कई व्यक्ति कहेंगे की अरे इतना सा तो खालो, फल तो खालो फिर उसके सामने कुछ न कुछ लाकर जरूर रखेंगे और उसे खाने पर विवश कर देंगे!
इसलिये इससे बचने के लिये आप गोपनीयता रखो मूरखों की तरह व्यर्थ प्रदर्शन न करो माला को गोमुखी मे जपो साधना का प्रदर्शन मत करो की मैंने इतना जप किया! जब कोई अपना जीवन नियम से जीता है और जिस दिन उसका नियम टूटता है तो व्याकुलता बढ़ती है और यही व्याकुलता हमें ईश्वर की और ले जाती है।
2- बाह्यय लोगो से विरोध – इससे बचने के लिये मदमस्त हाथी की तरह चलना सब की भली बुरी सुनते हुये चलना कोई कटाक्ष करे तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देना व्यर्थ के प्रपंच से बचते हुये बिल्कुल अर्जुन की तरह एकाग्रचित्त होकर चलना।
3- साधु सन्तों द्वारा कसौटी परख – आपके सामने नाना प्रकार के प्रलोभन आयेंगे सिद्धियों का प्रलोभन आयेगा पर आप वैभव और सुख सुविधा का त्याग करते हुये आगे बढ़ना! जैसे आपने एक वर्ष का एक व्रत रखा और कहा की एक वर्ष तक अमुख दिन नमकीन और मीठा न खाऊंगा तो उस दिन तुम्हारे सामने नमकीन और मीठा जरूर आयेगा अब वहा जिह्वा की परीक्षा होगी इस प्रकार कई तरह की परीक्षाओ से गुजरना पड़ेगा। इससे बचने के लिये आप त्यागी बन जाना।
4- देवताओं द्वारा राह अवरोधन – जब भी किसी की साधना बढ़ती है उसका प्रभाव बढ़ता है तो देवता उसकी राह मे बड़ी बाधा उत्पन्न करते है! कामदेव की पुरी सैना पुरी शक्ति लगा देती है जैसे विशवामित्र जी का तप भंग नारद जी को अहंकार से घायल करना इससे बचने के लिये अपनी सम्पुर्ण आसक्ति और प्रीति ईष्ट के चरणों मे रखना जब ईष्ट के चरणों मे प्रीति होगी तो देवताओं की प्रतिकूलता भी अनुकुलता मे बदल जायेगी। सद्गुरु का सानिध्य, समर्थ सच्चे सन्त का माथे पर हाथ, ईष्ट मे एकनिष्ठ एवं सच्ची प्रीति और अविरल निष्काम सात्विक साधना से देवताओं की प्रतिकूलताओं को अनुकुलता मे बदला जा सकता है।
5- अपनो का विरोध – गैरों की तो छोड़ो अपने भी विरोधी हो जाते हैं अपने ही शत्रु बन जाते है और इससे बचने के लिये आप इस सत्य को सदा याद रखना की हरी के सिवा यहाँ हमारा कोई नही है! सारा जगत है एक झूठा सपना और केवल हरी ही है हमारा अपना! और जब इस पाँचवी बाधा को भी साधक पार कर लेता है तो फिर साधक अपने ईष्ट मे समा जाता है फिर उसे संसार की नही केवल सार की परवाह रहती है।
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