जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है, जो मिट्टी के ढेले में, पत्थर में और सोने में सम रहता है, जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है, जो निंदा-स्तुति में सम रहता है, जो मान-अपमान में सम रहता है, जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो संपूर्ण कर्मों के आरंभ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। जब मनुष्य त्रिगुणातीत हो जाता है, तब वह निम्न प्रकृति के प्रयासों के प्रति उदासीन हो जाता है। तब उसके गुण उसे बांध नहीं सकते और वह उनसे मुक्त होकर एक सार्वभौम, शाश्वत आनंद के भाव को अनुभव करता है।
सुख व दुःख, दो भिन्न भाव
श्रीभगवान कहते हैं कि जो मनुष्य सुख एवं दुःख, दोनों ही अवस्थाओं में स्वस्थ अर्थात अपने ‘स्व’ या मूल स्वरूप में स्थित रहता है, वह गुणातीत कहलाता है। सामान्य दृष्टि से हमें सुख व दुःख, दो भिन्न भाव दिखाई पड़ते हैं, पर ऐसा है नहीं। ये एक ही अनुभूति के दो पक्ष हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। चाहते तो सभी सुख हैं, पर वह इच्छा पूरी न हो पाने पर दुःख में बदल जाती है।
सुख की चाहत वस्तुतः दुःख की जन्मदात्री है
इसीलिए श्रीभगवान कहते हैं कि गुणातीत व्यक्ति सुख या दुःख की दौड़ में ही नहीं पड़ता, बल्कि दोनों में ही समभाव रखता है; क्योंकि सुख की चाहत वस्तुतः दुःख की जन्मदात्री है। जैसे सुख की चाह मिटा देने से दुःख स्वयं सदा के लिए समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार राग के नष्ट होने से द्वेष भी सदा के लिए नष्ट हो जाता है। ये सुख-दुःख, गुणों के विषम भाव के परिणाम हैं व इनसे मुक्त वही हो सकता है, जो गुणातीत होकर समभाव में स्थित हो गया हो।
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