विचारों का संयम न हो तो वाणी, इन्द्रिय, धन आदि का अपव्यय न करते हुए भी व्यक्ति कुछ पाता नहीं, सतत खोता ही है। एक ग्रामीण ने संत ज्ञानेश्वर से पूछा- ‘संयमित जीवन बिताकर भी मैं रोगी हूं, महात्मन् ऐसा क्यों? दिव्य दृष्टा संत ज्ञानेश्वर बोले- पर मन में विचार तो निकृष्ट है। भले ही तुम बाहर से संयम बरतते रहो-मन में कलुष भरा हो, विचार गन्दे हो तो वह अपव्यय रोगी बनायेगा ही।
सद्विचारों की सेना
संत ज्ञानेश्वर आगे बोले अपने विचारों को आवारा कुत्तों की तरह अचिन्त्य-चिंतन में भटकने न दिया जाय। उन्हें हर समय उपयोगी दिशा-धारा के साथ नियोजित करके रखा जाय। अनगढ़-अनैतिक विचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की एक सेना बनाकर रखी जाय, जो अचिन्त्यय-चिंतन उठते ही जूझ पड़े उन्हें निरस्त करके भगा दें।।
विरोधी विचारों की सेना
इस बात को और आगे बढ़ाते हुए संत ज्ञानेश्वर कहने लगे विचार संयम का सबसे अच्छा तरीका है, उन्हें बिखराव से रोककर उत्कृष्ट उद्देश्य के साथ जोड़ दिया जाय। इसके लिए अपने अन्दर भी एक विरोधी विचारों की सेना उसी प्रकार खड़ी करनी होगी जैसी कि विजातीय द्रव्यों के शरीर में प्रविष्ट होने पर रक्त के कण खड़ी कर देते हैं। निकृष्ट विचारों व उत्कृष्ट चिंतन की परस्पर लड़ाई ही अन्तर्जगत का देवासुर संग्राम है। विचारों की विचारों से काट एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है।
विचार मंथन : साहित्य-देवता के लिये मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है-विनोबा भावे
विचारों के लिए उपयोगी मर्यादा
इसलिए अनिवार्य है कि कुविचारों को सद्विचारों से काटने का महाभारत अहर्निश जारी रखा जाय। विचारों के लिए उपयोगी मर्यादा एवं दिशाधारा निर्धारित की जाय जिनमें अभीष्ट प्रयोजन अथवा मनोरंजन के लिऐ परिभ्रमण करते रहने की छूट रहे। चिड़ियाघरों में जानवरों का बाड़ा होता है। उन्हें घूमने-फिरने की छूट तो रहती है, पर उस बाड़े से बाहर नहीं जाने दिया जाता। ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाय। उसे जहां-तहां बिखरने न दिया जाय।
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