युग प्रवाह को उलटने
जिस प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हुई है, तब उसी का समाधान करने के लिए एक दिव्य चेतना, जिसे अवतार कहा गया है प्रादुर्भूत हुई है और उसी क्रम से अवतार, युग प्रवाह को उलटने के लिए अपनी लीलाएं रचते रहे है। सृष्टि के आरम्भ में जल ही जल था। प्राणी जगत में जलचरों की ही प्रधानता थी, तब उस असंतुलन को मत्स्यावतार ने साधा। जब जल और थल पर प्राणियों की हलचलें बढी तो उनके अनुरूप क्षमता सम्पन्न कच्छप काया ने सन्तुलन बनाया। उन्हीं के नेतृत्व में समुद्र-मन्थन के रूप में प्रकृति दोहन का पुरुषार्थ सम्पन्न हुआ।
संचय की-प्रवृत्ति
हिरण्याक्ष समुद्र में छिपी सम्पदा को ढूंढ़कर उसे अपने ही एकाधिकार में कर लिया तो भगवान् का वाराह रूप ही उसका दमन करने में समर्थ-सक्षम हो सका। जब मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक कमाने में समर्थ हो गया तो संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित संचय की-प्रवृत्ति भी बढी। संचय और उपभोग की पशु प्रवृत्ति को उदारता में परिणत करने के लिए भगवान् वामन के छोटे बौने और पिछडे़ लोग उठ खड़े हुए और बलि जैसे सम्पन्न व्यक्तियों को स्वेच्छापूर्वक उदारता अपनाने के लिए सहमत कर लिया गया।
सज्जनता के संरक्षण का आश्वासन
उच्छृंखलता जब उद्धत और उद्दण्ड हो जाती है तब शालीनता से उसका शमन नहीं हो सकता। प्रत्याक्रमण द्वारा ही उसका दमन करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर नरसिंहों की आवश्यकता पड़ती है और उन्हीं का पराक्रम अग्रणी रहता है। उन आदिम परिस्थितियों में भगवान् ने नर और व्याघ्र का समन्वय आवश्यक समझा तथा नृसिंह अवतार के रूप में दुष्टता के दमन एवं सज्जनता के संरक्षण का आश्वासन पूरा किया’।
‘विषस्य विषमौषधम्’
इसके बाद परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध के अवतार आते हैं। इन सभी का अवतरण बढ़ते हुए अनाचरण के प्रतिरोध और सदाचरण के समर्थन-पोषण के उद्देश्य के लिए हुआ। परशुराम ने शस्त्र बल से सामन्तवादी निरंकुश आधिपत्य को समाप्त किया। राम ने मर्यादाओं के पालन पर जोर दिया तो कृष्ण ने अपने समय की धूर्तता और छल-छद्म से घिरी हुई परिस्थितियों का दमन ‘विषस्य विषमौषधम्’ की नीति अपना कर किया। कृष्ण चरित्र में कूटनीतिक दूरदर्शिता की इसलिए प्रधानता है कि इस समय की परिस्थितियों में सीधी उंगली से घी नहीं निकल पा रहा था। इसलिए काटे से कांटा निकालने का उपाय अपनाकर अवतार प्रयोजन को पूरा करना पड़ा।
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