मानव-पिण्ड के रूप में आया प्रारम्भिक मनुष्य अपने वंश के अनुसार विकसित होता हुआ अपना निर्माण प्रारम्भ कर देता है। अपनी सूझ-बूझ और निर्णय के अनुसार कोई धनवान बनता है, कोई विद्वान् बनता है, कोई व्यापारी बनता है तो कोई श्रमिक। कोई पापी बनता है तो कोई पुण्यात्मा। मनुष्य अपना निर्माण अनेक प्रकार का कर सकता है। मानव-निर्माण का कोई एक स्वरूप नहीं, असंख्य स्वरूप एवं प्रकार हैं। किन्तु उन सबको बांटकर दो प्रकारों में किया जा सकता है। एक उत्कृष्ट निर्माण दूसरा निकृष्ट निर्माण।
मनुष्य कुछ भी बने, किसी क्षेत्र अथवा किसी दिशा में बढ़े, विकास करे, यदि उसमें उसने श्रेष्ठता का समावेश किया हुआ है तो उसका निर्माण उत्कृष्ट निर्माण ही कहा जायेगा और यदि वह उसमें अधमता का समावेश करता है तो उसका निर्माण निकृष्ट ही माना जायेगा। उदाहरणार्थ यदि वह धन के क्षेत्र में बढ़कर अपना निर्माण धनाढ्य के रूप में करता है किन्तु इसकी सिद्धि में दुष्ट साधनों तथा उपायों का प्रयोग करता है, तो कहना होगा कि वह अपना निर्माण निकृष्ट कोटि का कर रहा है। यदि वह इसकी सिद्धि में सत्य, शिव और सुन्दर से सुशोभित साधनों तथा उपायों का अवलम्बन करता है तो कहना होगा कि वह अपना निर्माण उत्कृष्ट कोटि का कर रहा है। इस प्रकार मनुष्य का कोई भी आत्म निर्माण या तो उत्कृष्ट कोटि का होता है अथवा निकृष्ट कोटि का।
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