यह कहानी है जिले के एकमात्र जीवित स्वतंत्रता सेनानी गिरधारीदास मानिकपुरी के हौसले व महात्मा गांधी के प्रति समर्पण का। आजादी के 71 बरस देख चुके मानिकपुरी अब 94 साल के हो चुके हैं। शारीरिक शिथिलता के अलावा अब स्मृति भी साथ छोडऩे लगी है, लेकिन गांधीजी के आदर्शों पर वे आज भी अडिग हैं। विस्मृति के बाद भी वे न सिर्फ गांधीजी की नैतिकता के सिद्धांतों की चर्चा करते हैं। आज भी केवल खादी के कपड़े पहनते हैं।
पत्रिका ने आजादी के इस महानायक के जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर दुर्ग-बालोद मार्ग पर उनके गृहग्राम कुथरेल में मौजूदा हालात जानने का प्रयास किया। चार बेटों का भरापूरा परिवार के साथ रह रहे मानिकपुरी भरी दोपहरी में घर के भीतर कमरे में सफेद खादी के कपड़े पहने विचार मुद्रा में बैठे मिले।
तुलसीदास ने बताया कि उनके पिता ने जीवनभर गांधीजी के सत्य, अहिंसा, सादगी और स्वाभिमान के सिद्धांतों का पालन किया। स्मृति में कमी के बाद भी वे अधिकतर नियमों का पालन करते हैं। यहां तक की बिना काम पैसे नहीं लेने के सिद्धांत का पालन करते हुए आज भी कई बार पेंशन लेने से मना करते हैं। इसी सिद्धांत के चलते उन्होंने दूसरी सरकारी सहायता भी नहीं ली।
मानिकपुरी ने बताया कि खुद गांधीजी ने आंदोलन से जुड़ी जानकारियां गांव-गांव पहुंचाने की जिम्मेदारी उन्हें दी थी। वे हाथ में डंडा लेकर गीत और भाषण के माध्यम से आस-पास के करीब 20 गांवों में यह संदेश पहुंचाते थे। 1942 में करो या मरो आंदोलन के ऐलान के बाद उन्हें आधा सैकड़ा से ज्यादा पुलिस वालों ने गांव में घेरकर तिलोचन साहू व 4 अन्य साथियों के गिरफ्तार कर लिया और 6 माह रायपुर सेंट्रल जेल में बंद रखा।
मानिकपुरी के बेटे तुलसीदास ने बताया कि जेल से लौटने के बाद भी उनका गांव-गांव अलख जगाने का काम चलता रहा। आजादी के बाद सामाजिक उत्थान के लिए उनका अभियान चलता रहा। इसके बाद उन्हें शिक्षक की नौकरी मिल गई। शिक्षक रहते हुए मानिकपुरी ने करीब 30 साल सेवा दी। आज भी उनके कई शिष्य उनसे नियमित मिलने आते हैं।