CG News: 1857 में जेल से भागे
कुछ शोध व किताबों में तथ्य है कि अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए संबलपुर रियासत के राजा वीर सुरेंद्र साय और शहीद वीर नारायण के बीच समझौता होने जा रहा था। ऐसे में अंग्रेज पूरे मध्यभारत से उखड़ जाते। डरे हुए अंग्रेजों ने उन्हें अनाज लूटने के मामले में पकड़ा। उन्हें जेल में रखने की योजना काम न आई। प्रथम स्वाधीनता संग्राम से प्रेरित वीर नारायण सिंह अगस्त 1857 में रायपुर सेंट्रल जेल से भाग गए थे। रायपुर सेंट्रल जेल से निकलने के बाद वीर नारायण सिंह वापस सोनाखान पहुंचे। उन्हें देखकर यहां के लोगों का हौसला भी लौट आया।तैयार हो गई 1000 बंदूकधारियों की फौज
आजादी की लड़ाई में अपने नायक का साथ देने लोग आगे आए। देखते-देखते 500 से 1000 बंदूकधारियों की फौज तैयार हो गई। वीर नारायण और उनकी सेना छपामार प्रणाली से युूद्ध करने में पारंगत थी। इसीलिए कुर्रूपाट की पहाड़ियों पर अंग्रेजों के लिए उन्हें पकड़ना मुश्किल था। ऐसे में अंग्रेजों ने आसपास के गांवों में आग लगाना शुरू कर दिया। अपने लोगों को भूखा न सोना पड़े, इसलिए जिस जमींदार ने जेल तक का सफर किया, वह इस तरह अपनी प्रजा को तड़पकर मरता न देख सका। उन्होंने तत्काल आत्मसमर्पण कर दिया। इस तरह अंग्रेजों ने छलपूर्ण उन्हें पकड़कर तोप से उड़ा दिया। 1992 में पहली बार पुण्यतिथि मनी और तभी से इतिहास सुधारने की कोशिशें जारी हैं। यह भी पढ़ें
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राष्ट्रीय दिशा मंच संस्थापक किरोड़ीमल अग्रवाल कहते हैं कि अफसोस है कि शहीद को जो सम्मान मिलना था नहीं मिला। मंच के प्रयासों से आजादी के 45 साल बाद पहली पुण्यतिथि जयस्तंभ चौक पर मनी। मैंने हरि ठाकुर, केयूर भूषण जैसे सेनानियों के साथ रविशंकर यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी खंगाली। तब जाकर 10 दिसंबर को शहीद वीर नारायण को अंग्रेजों द्वारा मृत्युदंड देने की बात साबित हुई। स्कूली किताबों में भी उनकी वीरता की गाथा शामिल करवाने की पहल भी तभी से कर रहे हैं। राज्य बना मांग पूरी हुई पर इतिहास उस तरह नहीं बताया जैसा बताया जाना था। 1857 की क्रांति में आजादी का वो परवाना, जिसने अंग्रेजों से लोहे के चने चबवा दिए थे। अंग्रेज उन्हें अपना इतना बड़ा दुश्मन मानते थे कि मौत की सजा भी दी, तो रूह कंपा देने वाली। दोनों हाथों को तोप से बांधकर उड़ा दिया। राजधानी का जयस्तंभ चौक आज भी उस घटना का गवाह है।
परिवार के 6 और सदस्यों ने भी की थी अंग्रेजों से बगावत
पूर्व सांसद चुन्नीलाल साहू ने भी शहीद से जुड़े स्कूली पाठ्यक्रम में बदलाव की मांग की है। उनके मुताबिक, ओडिशा और झारखंड की यात्रा के दौरान कई किताबों और शोध से यह बात पता चली कि शहीद के परिवार के 6 और भी सदस्यों ने आजादी की लड़ाई में प्राणों की आहुति दी थी। उनके ससुर माधो सिंह को संबलपुर जेल के पास 1 दिसंबर 1858 को फांसी दी गई। उनके चार साले-हटे सिंह, बैरी सिंह, गोविंद सिंह और कुंजल सिंह को आजीवन कारावास की सजा दी गई। जेल में ही सभी की मौत हो गई। उनके एक अन्य साले ऐसी सिंह को सुरंग में जिंदा जलाकर मार दिया गया। यह जानकारी रांची और ओडिशा के बरगढ़ जिले के रेकॉर्ड और पुरानी किताबों में मिली है। चुन्नीलाल ने ओडिसा के प्रोफेसर्स द्वारा लिखी किताबों और ऐतिहासिक दस्तावेजों की जांच कर इस तथ्य को उजागर किया। उनका कहना है कि यह इतिहास स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए। ताकि बच्चों को अपने नायकों के संघर्ष के बारे में पता चले।