कहते हैं एक असरदार विज्ञापन दुनिया की सोच, समझ, ख़्वाहिशों और तौर-तरीक़े बदलने की ताक़त रखता है, लेकिन देखिए क्या ज़माना आ गया है जनाब, दुनिया को बदलने का दावा करनेवाला विज्ञापन जगत आज ख़ुद ही बदल रहा है, अपनी ‘कहानी’ में भी और अपनी ‘कहनी’ में भी, मतलब बात में भी और बात के कहने के तरीक़े में भी।
विज्ञापन की दुनिया कम शब्दों में या बिना शब्दों के भी, अपनी बात कहने की शक्ति रखती है। कभी-कभी जो बात शब्द नहीं कह पाते वो बात एक तस्वीर या एक विजुअल कह जाता है। इसीलिए एडवरटाइज़िंग का कॉन्टेंट लिखने-कहने और दिखाने के मामले में, हमेशा से सबसे अलग रहा है। इसके मूल में क्रिएटिविटी होती है जिसका मक़सद होता है लोगों को अपनी कही-दिखायी बात से आकर्षित करना, अपने प्रोडक्ट या सर्विस की ख़ूबियों पर बात करते हुए, आपकी ज़रूरतों से उसे जोड़कर, उसको खरीदने के लिए आपके मन में चाहत को पैदा करना।
आज तेज़ी से बदलती दुनिया में एडवरटाइज़िंग को भी ये डर है कि कहीं वो पीछे न छूट जाए। उसको भी जेनरेशन गैप का ख़ौफ़ है। इसीलिए विज्ञापन अब साँचा नहीं बन रहा है जो समाज को अपने में ढाले, बल्कि अब वो ख़ुद ढल रहा है। उसका कॉन्टेंट लचीला हो रहा है, वो केवल कस्टमर या क्लाइंट के हिसाब से ही नहीं बदल रहा है बल्कि किस माध्यम से उसे दिखाया जाएगा, उससे भी बदल रहा है। देश में फ़िल्मों के गहरे असर की वजह से दृश्यात्मक विज्ञापन फ़िल्म हमेशा से हॉरिज़ोंटल स्क्रीन के लिए बनती थीं पर अब मोबाइल की वज़ह से वर्टिकल बन रही हैं। पहले इंग्लिश और हिंदी के अलग-अलग ज़ुबानी खाँचे थे, लेकिन अब ये सरहदें टूट रही हैं । सोसाइटी में अब भाषा को लेकर एक अलग ही सहजता है। इसीलिए अब नये-पुराने के बीच का एक रास्ता निकाला गया है, और वो है ‘हिंग्लिश’, जिसमें हिंदी-इंग्लिश का फ्यूजन है। इससे भी बड़ी बात ये है कि आजकल लोग अपनी बोलियों में देखना-सुनना चाहते हैं। विज्ञापन जगत ने इस बात को बख़ूबी समझा और उनको लगा कि अगर हम लोगों को उनकी बोली में समझाएँगे तो उन्हें ज़्यादा जल्दी समझ आएगा और विश्वसनीय भी लगेगा। अपनी बोली में अपनेपन का जो भाव होता है, उसमें अपनी ओर खींचने की अजब ही ताक़त होती है। विज्ञापन का तो काम ही लोगों को अपनी ओर खींचना होता है। इस वज़ह से ही बोलियाँ भी कॉन्टेंट में बदलाव का कारण बन रही हैं।
चित्रात्मक या दृश्यात्मक रूप से बात की जाए तो हमको विजुअल कॉन्टेंट में एक बड़ा विरोधाभासी बदलाव भी दिखता है। एक तरह देश-प्रदेश की संस्कृति के रंग और पैटर्न, उत्सव और पर्व प्रिंट के डिज़ाइन-लेआउट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के विज्ञापनों में ज़बरदस्त जगह बना रहे हैं; वहीं दूसरी तरफ़ एनिमेशन और ग्राफ़िक्स की नयी तकनीक भी अपनी धाक जमा रही है। इसमें सबसे आश्चर्य की बात ये है कि एक ही उपभोक्ता दोनों तरह के विज्ञापनों को सराहता है। अगर इन दोनों के बीच चुनाव का मौका आता है तो विज्ञापन एजेंसियाँ प्रोडक्ट और सर्विस के नेचर और टारगेट ग्रुप के हिसाब से दोनों में से किसी एक को चुनती हैं या फिर यहाँ भी दोनों को मिलाकर कुछ नया कर जाती हैं।
अब तो प्रिंट मीडिया में भी एक्सपेरिमेंट किये जा रहे हैं, लोगों को इन्वॉल्व करने के लिए उसमें एक्टिविटी को जोड़ा जा रहा है, जैसे किसी स्याही को गीले कपड़े से साफ़ कीजिए तो उसके नीचे कुछ और निकलेगा या फिर परत के अंदर परत का निकलना। होर्डिंग के विज्ञापनों में 3 डाइमेंशनल विज्ञापन आ गये हैं। हाथ की पेंटिंग की जगह तो काफ़ी पहले फ्लेक्स प्रिंटिंग ने ले ली थी, अब डिजिटल स्क्रीन के लिए और भी अट्रैक्टिव कॉटेंट डिज़ाइन किए जा रहे हैं। वीडियो स्क्रीन लगने से लोगों का अटेंशन बढ़ा है। लोगों को लगता है ये अगले पल बदल जाएगा, तो वो और भी ध्यान देकर देखते हैं। एआई के आ जाने से लोगों को नया एक्सपीरिएंस हो रहा है। एआई के सहारे ऐसे भी विज्ञापन बने हैं जिसमें गली-मोहल्ले तक की दुकानों के नाम एक सुपर स्टार के मुँह से बोलते हुए दिखाए गये हैं।
कॉन्टेंट के मामले में एक अच्छी बात ये हुई है कि ‘सामाजिक मुद्दे’ अब केवल सीएसआर मतलब कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी तक ही सीमित नहीं रह गये हैं। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बहुत सारे कॉन्टेंट डेवलप किये जा रहे हैं। ट्रांसजेंडर या फिर सेनेटरी नेपकिन जैसे अब तक प्रतिबंधित-से मुद्दे अब खुलकर विज्ञापनों का हिस्सा बन रहे हैं। स्किन कलर या बॉडी शेमिंग जैसे कई संवेदनशील विषय हों या फिर सामाजिक एकता जैसे गंभीर मुद्दे, विज्ञापन जगत ऐसे विषयों को लेकर दिल को छूनेवाले कॉन्टेंट बनाकर नये जमाने का संदेश देने में लगातार अच्छा काम कर रहा है।
नयी पीढ़ी के रुझान को देखते हुए अब कॉन्टेंट बनाने में ह्यूमर और विट को और भी ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि न्यू जेनरेशन बहुत देर तक कुछ नहीं देखना चाहती है मतलब उसका अटेंशन स्पैन बहुत क्षणिक होता है, कई बार तो पांच सेकंड से भी कम। ऐसे में हल्के-फुलके में कही गयी बात इंगेजिंग कॉन्टेंट बन जाती है और विज्ञापन अपनी बात कहने के लिए डाइरेक्ट या इनडायरेक्ट रास्ता निकाल लेते हैं। नये जमाने की आकांक्षाएं केवल प्रोडक्ट्स को ही नहीं सर्विसेज को भी बदल रही हैं। पहले समस्याओं के समाधान के लिए या जिंदगी को आसान बनाने के लिए नयी वस्तुएं या सेवाएं आती थीं, अब नयी उम्मीदें हैं, नया माइंडसेट है। जिसके लिए तरह-तरह के एप बन रहे हैं। इनके विज्ञापनों से टीवी, अख़बार और सोशल मीडिया भरे पड़े हैं। इनके लिए यूनिक कॉन्टेंट की अपेक्षा होती है, जिससे लोग न केवल इनके बारे में जानें बल्कि इस्तेमाल के लिए डाउनलोड भी करें। ऐसे कॉन्टेंट एक तरफ एजुकेटिव और इंफ़ॉर्मेटिव होते हैं तो साथ ही एंटरटेनिंग भी, नहीं तो केवल सूचनात्मक कॉन्टेंट पब्लिक के लिए बहुत बोरिंग हो जाता है।
एक और बात ये है कि अब कॉन्टेंट टिकाऊ जैसी बातें कम करते हैं क्योंकि लोग बहुत दिनों तक कुछ भी इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं। चेंज और एक्सचेंज आज की सोसाइटी और बाज़ार की दुनिया में बहुत प्रचलित हो चला है। इसीलिए कॉन्टेंट भी उन्हीं की तरह फास्ट चेंजिग हो गया है।आजकल कुछ भी एक समय से ज़्यादा नहीं चलता। इसीलिए कई तरह के कॉन्टेंट बनाए जाते हैं। जिन चीज़ों के विज्ञापन पर प्रतिबंध हैं उनके लिए घुमाफिराकर रास्ते निकालने में आज के कॉन्टेंट क्रिएटर बहुत माहिर हैं। ऐसे विज्ञापनों को सरोगेट एडवरटाइज़िंग माना जाता है, जैसे शराब का विज्ञापन न करके, उसी के नाम का पानी, सोडा या ग्लास बेचना। सरोगेट कॉन्टेंट बहुत सावधानी से लिखे जाते हैं जिससे नियम-क़ानून के जाल में फँसने से बचा जा सके। किसी देश के झंडे और नक़्शे या किसी अन्य संवेदनशील विषय को लेकर भी जो कॉन्टेंट बनाए जाते हैं वो आजकल सीधे न दिखाकर सांकेतिक रूप से अधिक दिखाए जाते हैं।
कहते हैं सबसे प्रभावशाली विज्ञापन वो होता है जो लोगों की आदत बदल दे, सोच बदल दे, नज़र और नज़रिया बदल दे और इसकी ज़िम्मेदारी विज्ञापन के कॉन्टेंट के कंधों पर होती है। आज के सोशल मीडिया के कैंसल कल्चर और तुरंत ट्रोल कर दिये जाने की वजह से कॉन्टेंट राइटिंग एक जोखिमभरा काम बन गया है। एक गलती पूरी ज़िन्दगी के लिए भारी पड़ सकती है। कई बार तो जनाक्रोश की वजह से विज्ञापन वापस लेने पड़ते हैं। सार्वजनिक माफ़ियाँ भी माँगी जाती हैं। इसीलिए कॉन्टेंट को लेकर सभी एडवरटाइज़िंग एजेंसियाँ बहुत सचेत हो गयी हैं। कई बार एक विज्ञापन को बनाने, प्रकाशित या चलाने से पहले लीगल ओपिनियन तक ली जाती है। इसीलिए अब हर विज्ञापन के कॉन्टेंट को क़ानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक और कभी-कभी आस्था की तराज़ू पर तौलकर भी देखा जाता है, जिससे किसी की भावना हत न हो। आजकल हर तरह से संतुष्ट होकर ही कोई विज्ञापन जनता के सामने आता है। कॉन्टेंट के संदर्भ में एक कॉन्टेंट राइटर के लिए सबसे बड़ा बदलाव ये है कि कॉन्टेंट क्रिएट करने में अब पहले जैसी आज़ादी नहीं रही, यहाँ कल्पना की उड़ाने भरने की छूट तो है लेकिन एक सीमित पिंजरे के अंदर।
– नीलेश के. जैन, एक्स एग्जीक्यूटिव क्रिएटिव डायरेक्टर, फिल्म और एड फ़िल्म राइटर-डायरेक्टर, क्रिएटिव कन्सलटेंट, मुंबई