जहां पहले कच्चे मकानों के बीच कुछ ही पक्के मकान दिखाई देते थे। लेकिन अब स्थिति इससे उलट है। ऐसे में गोबर से दीवारों को लिपने, गेरू, पाण्डू से दीवारों पर चित्र, आंगन में
मांडणे बनाने के नजारे भी कम ही देखने को मिलते है। सिर्फ गांवों में आज भी कई परिवार कच्चे घरों में गोबर, लाल मिट्टी के साथ चूने के रंग से घरों को सजाते-संवारते हैं। दीपावली आते ही कच्चे मकानों में रंगाई, पुताई के बाद आंगन, दीवारों पर मांडणे बनाने का कार्य शुरू हो जाता है।
शहरी क्षेत्रों में तो अब यह आकर्षक मांडणे मकानों के बजाय होटलों में राजस्थानी संस्कृति की झलक दिखाते नजर आते हैं। कच्चे मकानों में पशु-पक्षी सहित कई तरह के मांडणे उकेरे जाते हैं। जो रेखाओं पर आधारित होते हैं। जिनको बनाने में ज्यादा परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। आंगन में ज्यामिति के आधार पर भी कुछ लोग मांडणे बनाते हैं जिनको हीड, पगलिया आदि नाम से पुकारा जाता है।
कई पर्यटक गांवों में आते हैं देखने
इनको बनाने में ज्यादा खर्चा भी नहीं आता है। गेरू, पाण्डू को पानी में घोलकर मांडणे बनाया जाता है। यह इतने आकर्षक होते हैं कि इनको कई पर्यटक गांवों में देखने भी जाते हैं। पक्के मकानों में घर के बाहर नेम प्लेट लगाकर मुखिया या सबके नाम लिखे जाते हैं। वहीं, कच्चे मकानों के बाहर की दीवार पर कहीं भी नाम लिख दिया जाता है जिससे हमें उस घर में रहने वाले सदस्यों के बारे में जानकारी मिल जाती है।
बाजार में अब इनकी बिक्री
बाजारों में अब रंग-बिरंगे मांडणे के स्टीकर लोग पसंद कर रहे हैं। ऐसे में मांडणे की पारंपरिक कला सिमटती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में जरूर कच्चे घरों पर त्योहारों के मौके पर बुजुर्ग महिलाएं हाथों से मांडणे बनाती नजर आ आती हैं। कस्बों व शहरों में यह परंपरा अब लुप्त-सी हो गई है। पक्के मकानों से आई कमी
दीपावली आते ही वर्षों से कच्चे आंगन, दीवारों पर मांडणे बनाने की परम्परा शुरू हो जाती है। कुछ सालों में इस परम्परा में कमी-सी आने लगी है। जिसकी वजह पक्के मकान बनने को भी जोड़कर देखा जा सकता है। इस परम्परा को ग्रामीण अंचल में जीवन्त रखने के प्रयास आज भी जारी हैं। राजस्थानी संस्कृति की झलक कच्चे मकानों के चित्रांकन, मांडणे में ही देखी जा सकती है।