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जीवन के लिए काम या काम के लिए जीवन?

यह प्रश्न गंभीर चिंतन की मांग करता है कि हम कैसा समाज और देश बना रहे हैं: एक ओर भारत देश है जिसने कभी दुनिया को जीवन का वास्तविक अर्थ समझाया था, तो दूसरी ओर चीन और जापान जैसे देश जिनकी मशीनी कार्य संस्कृति के दुष्परिणाम लगातार दुनिया के सामने आ रहे हैं। कभी जीवनयापन के लिए रोजगार किया जाता था, पर अब तो रोजगार ही जीवन बनने से आगे बढक़र जानलेवा साबित होने लगा है।

जयपुरSep 26, 2024 / 05:59 pm

Nitin Kumar

राज कुमार सिंह
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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काम के बोझ और दफ्तर के तनाव ने 26 साल की युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट एना सेबेस्टियन पेरायिल की जान ले ली। दुनिया की ‘बिग फोर’ में शुमार एक कंसलटेंसी फर्म में काम करना किसी भी युवा सीए का सपना होता है। इसी साल मार्च में कंपनी ज्वॉइन करते समय एना की आंखों में चमकदार भविष्य के सपने रहे होंगे, पर काम के बोझ और तनाव ने 20 जुलाई को उसकी जान ले ली। यह घटना पुणे की है। खुद एना की मां एनिटा ऑगस्टीन ने कंपनी के इंडिया प्रमुख को पत्र लिख कर उस पर काम के बोझ और दफ्तर के तनाव का आरोप लगाया है। इस पत्र के सोशल मीडिया में वायरल होने के बाद ही यह घटना चर्चा में आई और सबको झकझोर दिया। एकाएक यह सवाल मुखर हो गया कि कॉरपोरेट जगत की चमकदार नौकरियां भारत में बेहतर भविष्य दे रही हैं या बदतर जिंदगी।
अधिकांश मल्टीनेशनल कंपनियों के मुख्यालय विदेश में होते हैं, इसलिए कामकाज का शेड्यूल वहीं की टाइमिंग के हिसाब से तय किया जाता है, जिसमें भारतीय कर्मचारियों की ऑफिस टाइमिंग आदि का कभी ध्यान नहीं रखा जाता। एना की मां का दावा है कि ज्यादा काम के बोझ के चलते कई कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया था। इसलिए उनकी बेटी को बॉस ने चेतावनी दी थी कि वह ऐसा न करे। उसे सप्ताहांत में भी काम से फुरसत नहीं मिलती थी। एक बार तो उसे बॉस ने रात को कोई काम सौंपा, जिसे अगली सुबह तक पूरा करना था। उसे कहा गया कि तुम रात को जाग कर काम कर सकती हो, हम सब भी यही करते हैं। एना की मां ने इस बात पर भी दुख जताया कि उनकी बेटी के अंतिम संस्कार में कंपनी से कोई नहीं आया। सोशल मीडिया पर पत्र वायरल होने के बाद कंपनी के इंडिया प्रमुख ने परिवार के प्रति संवेदना भी व्यक्त की और दावा भी किया कि कंपनी कर्मचारियों की खुशहाली का हर तरह से ध्यान रखती है, जिसमें और सुधार के प्रयास जारी रहेंगे।
एना की असामयिक मृत्यु ने कॉरपोरेट के चमकदार कॅरियर के पीछे के सेहत ही नहीं, जिंदगी पर भी भारी पड़ सकने वाले तनाव को बेनकाब कर दिया है। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि बढ़ते काम के बोझ और उससे उपजे तनाव ने और भी कई जिंदगियां असमय छीन ली हों। इसलिए हालात का तकाजा है कि काम और जीवन के बीच स्वस्थ संतुलन बनाने पर कंपनियां, कर्मचारी और सरकारें तत्काल विचार-विमर्श करें। आखिर बड़ी कंपनी में नौकरी और ज्यादा वेतन की जरूरत बेहतर पारिवारिक जीवन के लिए ही तो महसूस होती है, पर जब खुद का ही जीवन दांव पर लग जाए, तब उस सबका क्या मतलब? तमाम नई-नई जानलेवा बीमारियों को जिस आधुनिक जीवनशैली का परिणाम बताया जाता है, वह भी इसी कार्य संस्कृति की देन है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस भारत ने कभी दुनिया को जीवन का वास्तविक अर्थ समझाया, अब उसे भौतिक चकाचौंध में ऐसा फंसा दिया गया है कि इंसान ही मशीन बनता जा रहा है। कभी जीवनयापन के लिए रोजगार किया जाता था, पर अब तो रोजगार ही जीवन बनने से आगे बढक़र जानलेवा साबित होने लगा है। एक-दूसरे से आगे निकलने की गलाकाट स्पर्धा ने जीवन का असली सुख छीन लिया है। सरकारी नौकरियों पर लगातार कैंची चलाई जा रही है तो निजी क्षेत्र में कम से कम समय में अधिकतम मुनाफा कमाने के लिए कर्मचारियों से मशीनों की तरह काम लेने की मानसिकता हावी है। जापान और चीन सरीखे देशों में इस मशीनी कार्य संस्कृति के दुष्परिणाम लगातार दुनिया के सामने आ रहे हैं। यूरोप के कई देशों ने तो कानून बना दिया है कि दफ्तर के समय के बाद कर्मचारी अपने बॉस का फोन भी उठाने के लिए बाध्य नहीं हैं। फिर भी हमारा समाज और सरकार समय रहते चेतने को तैयार नहीं तो किसे दोष दिया जाए? यह कार्य संस्कृति सप्ताह में छह दिन हर रोज बारह घंटे काम की अपेक्षा रखती है। इसमें आने-जाने का समय शामिल नहीं है। उसे भी जोड़ लें तो क्या समय बचता है कर्मचारी के निजी और पारिवारिक जीवन के लिए? ऐसे में सामाजिक जीवन तो भूल ही जाइए। नई तकनीक को जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला वरदान माना जाता है। कुछ मामलों में ऐसा होता भी है, लेकिन बढ़ती ऑनलाइन कार्य संस्कृति ने घर और दफ्तर का फर्क मिटा दिया है। अब दफ्तर का काम और दबाव सुबह होते ही शुरू हो जाता है और सोने तक जारी रहता है।
ऐसे में कर्मचारी की शारीरिक और मानसिक सेहत की बात तो बेमानी है ही, पारिवारिक रिश्ते तक दरक रहे हैं। पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं तो एक-दूसरे को ही समय नहीं दे पाते। बूढ़े माता-पिता और बच्चे भी उपेक्षित रहते हैं। ऐसी कार्य संस्कृति से हम कैसा समाज और देश बना रहे हैं? इस पर गंभीर चिंतन का समय आ गया है।
कुछ समय पहले ही इन्फोसिस सरीखी चर्चित कंपनी के को-फाउंडर नारायण मूर्ति ने भारतीय युवाओं से राष्ट्र निर्माण के लिए सप्ताह में 70 घंटे काम करने का आह्वान किया था, ताकि उत्पादकता बढ़ाई जा सके। सारी दुनिया मानती है कि उत्पादकता का संबंध काम के घंटों से ज्यादा कार्यकुशलता और कार्यस्थल की परिस्थितियों से है। फिर भी पूछा जा सकता है कि पारिवारिक जीवन को ताक पर रख कर समाज को खोखला बनाते हुए कौन-सा राष्ट्र निर्माण किया जाता है?
नारायण मूर्ति के आह्वान पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं हुई थीं। कई लोगों ने इसे अमानवीय सोच बताया था, तो कुछ को उसी में राष्ट्र निर्माण की राह नजर आई थी। सच क्या है, हर भुक्तभोगी जानता है। नारायण मूर्ति की गिनती देश के सम्मानित उद्योगपतियों में होती रही है। देश चाहेगा कि सप्ताह में 72 घंटे काम की वकालत करने वाले नारायण मूर्ति अब काम के बोझ और तनाव से एक युवा सीए की असमय मौत से उठते सवालों का सामना करें और अपनी राय दें।

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