देश-विदेश में भी दालों का महत्त्व कम नहीं है, लेकिन परम्परागत भारतीय भोजन में पौष्टिकता के कारण दालों का अपना महत्व है। ‘दाल रोटी खाओ-प्रभु के गुण गाओ’ लोकोक्ति से स्पष्ट है कि दालें सम्पूर्ण भोजन के रूप में हमारी जीवन संस्कृति में शामिल रही हैं। इतना ही नहीं, देश के अलग-अलग भू-भागों में दालों की विभिन्नताओं के साथ-साथ उनके उपयोग की भी विशिष्ट प्रकृति रही है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उड़द व छोले, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल में अरहर तथा महाराष्ट्र एवं दक्षिणी राज्यों में मसूर दाल का इस्तेमाल विभिन्न व्यंजनों में किया जाता है। दालों का उपयोग विभिन्न रूपों में समूचे देश में होता है।
दलहनी फसलों में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण की क्षमता तो है ही, इनमें सीमित कीटनाशक एवं उर्वरकों की जरूरत होती है। यही कारण है कि विशेषज्ञ दलहनी फसलों को जलवायु में हो रहे परिवर्तनों के साथ अनुकूलन करने वाली फसलों के रूप में विकसित करने पर जोर देते रहे हैं। इसलिए यह कहना होगा कि जैव विविधता संरक्षण एवं प्राकृतिक खेती में भी दलहन फसलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
दालों में फाइबर, विटामिन एवं सूक्ष्म तत्व प्रचुर मात्रा में होते हैं। वसा कम होने के कारण ग्लूटेन मुक्त तो हैं ही इनमेें आयरन की अधिक मात्रा भी होती है। इसीलिए हृदय रोगियों व शुगर के मरीजों को भोजन में दालों को शामिल करने की अनुशंसा की जाती है। वैसे भी शाकाहारी भोजन में दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं। लेकिन बदलते दौर में खास तौर से युवा पीढ़ी को संतुलित भोजन तथा खान-पान में दालों के महत्त्व की जानकारी दी जाना जरूरी है। वह भी ऐसे दौर में जब हमारी पीढ़ी फास्ट फूड की तरफ आकर्षित हो रही है। प्राकृतिक खेती मे दालें फसल चक्र का महत्त्वपूर्ण भाग होती थीं, लेकिन हरित क्रांति के दौर में गेहूं और धान को प्रमुखता देने से दालों की खेती प्राथमिकता सूची से बाहर हो गई। इससे तुलनात्मक उत्पादन क्षेत्र के साथ-साथ प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी घटी।
यह तो है सेहत से जुड़ा पक्ष। बात दालों के उत्पादन की करें तो मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश दाल उत्पादन में अग्रणी हैं। देश भर में उत्पादित होने वाली दालों में 44.51 फीसदी हिस्सा चने का है। वहीं अरहर 16.84 प्रतिशत, उड़द 14.1 प्रतिशत, मूंग 7.96 प्रतिशत, मसूर 6.38 प्रतिशत तथा शेष दालों की 10.18 फीसदी पैदावार होती है। इसके बावजूद हमारे आहार में दालों की उपलब्धता कम है। आहार विशेषज्ञों के अनुसार प्रति वयस्क पुरुष और महिला के लिए प्रतिदिन दाल की आवश्यकता 60 व 55 ग्राम है जबकि उपलब्धता 52 ग्राम प्रति व्यक्ति है। दालों के चक्रीय उत्पादन की अपनी समस्या है। बाजार में मांग व उत्पादन के बीच उतार-चढ़ाव का दौर चलता रहता है और इसी कारण दालें कई बार गरीबों की थाली से दूर होती दिखती हैं।
कृषि विशेषज्ञों के आकलन के अनुसार देश में मसूर दाल के उत्पादन और मांग में लगभग 8 लाख टन का व उड़द दाल में 5 लाख टन का अंतर है। भारत ने साल 2021-22 में 16,628 करोड़ रुपए की दालों का आयात किया जबकि 2020-21 में यह आंकड़ा सिर्फ 11,938 करोड़ रुपए का था। वर्ष 2015 के बाद सरकार ने इसका उत्पादन बढ़ाने और आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य तैयार किया जिससे पिछले कुछ वर्षों में दालों के रकबे एवं उत्पादकता में भी वृद्धि हुई।
दालों की उपलब्धता आम आदमी की थाली तक हो सके, इसके लिए समन्वित प्रयासों की जरूरत है। दाल उत्पादक किसानों को प्रोत्साहन के रूप में सब्सिडी व दूसरी सुविधाएं देनी होगी। दालों की खेती में जोखिम भी कम नहीं। ऐसे में फसल बीमा के माध्यम से दलहन उत्पादक किसानों की जोखिम को कम किया जा सकती है। उन्नत बीज व अधिक उपज वाली किस्मों का उपयोग किसान अधिकाधिक करेंं यह भी जरूरी है। दलहन के उत्पादन और विपणन के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार आवश्यक है। व्यापार समझौते भी होने चाहिए।