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दबाव और तनाव मुक्त बनाना होगा प्रवेश परीक्षा की पूरी व्यवस्था को

मांग और आपूर्ति में भारी अंतर को भी कम करना होगा। नहीं तो लाखों युवा उन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए कष्टसाध्य पढ़ाई के दबाव और मनोवैज्ञानिक बोझ तले अपनी युवावस्था के महत्त्वपूर्ण वर्षों को गंवाते रहेंगे, जिनमें सफल होने की संभावना लॉटरी निकलने से भी ज्यादा दुष्कर है।

जयपुरJun 28, 2024 / 10:50 pm

Nitin Kumar

डॉ. अजीत रानाडे

वरिष्ठ अर्थशास्त्री व विचारक

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लगभग पच्चीस वर्ष पहले, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे के निदेशक प्रो. सुहास सुखातमे ने जब अपना कार्यकाल पूरा किया तो उनका एक साक्षात्कार एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकशित हुआ था। उनसे पूछे गए कई सवालों में एक यह भी था कि निदेशक के रूप में पांच साल में उनके कुछ मुख्य कार्य कौन-से रहे। उन्होंने तुरंत ही एक लाइन में जवाब दिया-‘किसी ने भी मुझे अपने बच्चे के एडमिशन की व्यवस्था करने के लिए नहीं बुलाया।’ यह जवाब गहरा महत्त्व लिए है। पहला, यह साफ है कि आप निदेशक को प्रभाव में लेकर अपने बच्चे का एडमिशन नहीं करा सकते। दूसरा, कोई भी इस ‘तंत्र’ में प्रभाव के इस्तेमाल के बारे में सोचता भी नहीं था। चाहे मंत्री हों या उद्योगपति, राजनीतिक नेता या फिर विशिष्ट वर्ग, किसी के लिए प्रवेश प्रक्रिया के बिना अन्य उपायों से प्रवेश दिलाना अकल्पनीय था। यह पैमाना अलिखित और आदर्श था, जो वर्षों से संहिता बन गया था। संयुक्त प्रवेश परीक्षा की पवित्रता में विश्वास के कारण यह मानदंड कायम रहा। आइआइटी में प्रवेश की प्रणाली लगभग चार दशकों तक चली जब देश में केवल पांच आइआइटी थे और प्रवेश और आवेदकों की संख्या का प्रबंधन मुश्किल नहीं था। तब आइआइटी रोटेशन के आधार पर प्रवेश परीक्षा का आयोजन करते थे।
आइआइटी समूह ने लगातार यह सुनिश्चित किया कि मानदंड पवित्र और कायम रहें तथा इसकी समग्रता से समझौता न हो, पर यह स्थिति कायम नहीं रह सकी। आइआइटी में प्रवेश काफी चुनौतीभरा हो गया। कोचिंग क्लास उद्योग ने स्थिति को और विकट कर दिया। अंततोगत्वा आइआइटी की संख्या बढ़ी, सीट बढ़ीं और आवेदकों की संख्या भी। देश के सभी प्रमुख इंजीनियरिंग और मेडिकल सीटों के लिए 2013 के आसपास ‘एक राष्ट्र, एक परीक्षा’ पर गहन नीतिगत चर्चा हुई। इसका उद्देश्य पूरे देश में एक समान मानक बनाना था। कोचिंग उद्योग के चलते आवेदकों के लिए जिस तरह असमान माहौल तैयार हुआ, उसे लेकर भी गहरी चिंता थी। अंतत: ‘एक परीक्षा’ मॉडल पर बात बनी। 2017 में अलग से नेशनल टेस्टिंग एजेंसी स्थापित की गई और आज एनटीए चार बड़ी परीक्षाएं करा रहा है। इन परीक्षाओं को लेकर पिछले कुछ वर्षों का अनुभव बाधामुक्त नहीं रहा है। छात्रों और अभिभावकों में बेचैनी बढ़ी है। जेईई हो या नीट, प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों पर अमानवीय दबाव और इसके चलते कोटा में आत्महत्या की घटनाओं को भी नहीं भूलना चाहिए। इस साल दो बड़ी परीक्षाओं नीट (यूजी) और यूजीसी-नेट को लेकर बड़ा विवाद उत्पन्न हुआ। नीट परीक्षा 571 शहरों और 4750 केंद्रों पर 24 लाख छात्रों ने दी थी, लेकिन बेतुके परिणाम सामने आए। 67 विद्यार्थियों को पूर्ण अंक प्राप्त हुए, जिनमें से छह विद्यार्थी एक ही केंद्र से एक ही क्रम में थे। इसके अलावा ग्रेस माक्र्स की वजह बताई गई कि प्रश्नपत्र देर से पहुंचे थे। अब सब कुछ सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है।
बिहार और गुजरात में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं, लेकिन किस्सा अभी खत्म नहीं हुआ है, न ही छात्रों-अभिभावकों के लिए अनकहा तनाव। ऐसे में बड़े पैमाने पर बदलाव और सुधारों की जरूरत है। तकनीक-आधारित समाधान भारत में कई जगह उपयोग में लिए जा चुके हैं, उन्हें समान रूप से अपनाने की जरूरत है। एक परीक्षा और एक नेशनल टेस्टिंग निकाय पर बहुत ज्यादा संसाधन झोंकना भी कम करना होगा। मांग और आपूर्ति में भारी अंतर को भी कम करना होगा। नहीं तो लाखों युवा उन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए कष्टसाध्य पढ़ाई के दबाव और मनोवैज्ञानिक बोझ तले अपनी युवावस्था के महत्त्वपूर्ण वर्षों को गंवाते रहेंगे, जिनमें सफल होने की संभावना लॉटरी निकलने से भी ज्यादा दुष्कर है।
(द बिलियन प्रेस)

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